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________________ साहसप्रकरणम् १८१ (वृ०) आधिविषयेऽपि साहसं भवतीत्युच्यते - आधि - धरोहर के विषय में भी अपराध होता है, इसका कथन किया जाता निर्णेजकश्च रजको गृहीत्वान्यांशुकानि चेत्। स्थापयेदाधिरूपेण लातुं राजतमुद्रिकाः॥१७॥ द्रव्यलोभाद्विवाहादौ परिधातुं च मानवम्। कञ्चित्प्रति यदा देयादुत्तमान्यंशुकानि च॥१८॥ निहृते नूतनं वस्त्रं दातुमन्यं पुरातनम्। शर्करादृषदां वृन्दे क्षालनान्नाशयेच्च यः॥१९॥ दण्डस्तेषां क्रमात् ज्ञेय आधौ च दशराजतैः। रौप्यमेकं त्वन्यदाने निवे' पञ्चभिर्दमः॥२०॥ शर्करा दृषदां वृन्दे क्षालयन्नाशयेद्यदि। वस्त्राणि रजकस्तर्हि यथादोषं च दण्डभाक्॥२१॥ वस्त्र धोने वाला धोबी यदि दूसरे के वस्त्रों को लेकर रजत मुद्रायें लेने के लिए धरोहर रूप में रख दे, धन के लोभ से किसी के उत्तम वस्त्र विवाह आदि में पहनने के लिए (दूसरे) पुरुष को दे दे, अन्य पुराना वस्त्र देने के लिये नया वस्त्र छिपाये और रेत अथवा पत्थर के ढेर में धोने से (वस्त्र) नष्ट कर दे तो उनका दण्ड क्रमशः धरोहर रख लेने पर दस रजत मुद्रा, दूसरे को देने पर एक रजत मुद्रा और (नया वस्त्र) छिपाने पर पाँच (रजतमुद्रा होना चाहिए)। रेत व पत्थर के ढेर में धोकर यदि वस्त्रों को नष्ट करे तो धोबी दोष के अनुसार दण्ड का भागी होता है। वस्त्रे नष्टे सकृद्धौतेऽष्टमांशं न्यूनमाप्नुयात्। द्विकृत्वस्तु तदर्भाशं त्रिकृत्वः पादमेव च॥२२॥ तुर्यकृत्वस्तदर्भाशम॰ नष्टे च पादभाक्। धनी जीर्णांशुके क्षीणे न हि किञ्चिदवाप्नुयात्॥२३॥ (धोबी से) पूरा वस्त्र नष्ट हो जाने पर (केवल) एक बार धुले (वस्त्र के मूल्य का) आठवाँ भाग कम (धोबी से) ग्रहण करना चाहिये। दो बार (धुले वस्त्र के १. २. ३. निन्हवे प २॥ दृश० भ २॥ ०ष्टमाश० प २।। ०कृत्वा भ १, प १, प २॥
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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