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________________ तृतीय अधिकार ३.१४ स्त्रीग्रहप्रकरणम् नत्वा श्रीकुन्थुतीर्थेशं स्वान्तध्वान्तनिवारकम् । परस्त्र्याकर्षणाख्योऽयं विवादो वर्ण्यतेऽधुना ॥ १ ॥ अन्तस् अन्धकार को दूर करने वाले तीर्थङ्कर श्री कुन्थुनाथ का वन्दन कर अब परस्त्री आकर्षण शीर्षक इस प्रकरण का वर्णन किया जाता है। (वृ०) पूर्वस्मिन् प्रकरणे समयव्यतिक्रान्तिः प्ररूपिता तत्सत्त्वे स्त्रीग्रहादयोऽपि दोषाः प्रादुर्भवन्ति इत्यत्र तावत् स्त्रीग्रहदोषो व्याख्यायते इस पूर्व प्रकरण में समयव्यतिक्रान्ति का निरूपण किया गया उसमें स्त्रीग्रह आदि दोष उत्पन्न होते हैं इसलिए यहाँ स्त्रीग्रहदोष का व्याख्यान किया जाता हैपराङ्गनासमासक्तं न रुन्ध्याच्चेन्नरं नृपः । महत्पापविभागो स्याद्राष्ट्रनाशो भवेत्पुनः ॥२॥ परस्त्री में आसक्त पुरुष को यदि राजा नहीं रोकता है तो वह बड़े पाप का भागी होता है और राष्ट्र का विनाश होता है । सन्ततिर्यत्प्रसङ्गेन जाय तेन वर्णविनाशः स्यात्तन्नाशे वर्णसङ्करा ।' धर्मसंक्षयः ॥ ३ ॥ क्योंकि (परस्त्री आसक्ति के) प्रसङ्ग से सन्तान वर्णसङ्कर उत्पन्न होती है, उससे वर्ण (धर्म) का नाश होता है, उस (वर्ण) धर्म का नाश होने पर (मूल) धर्म का नाश होता है। पराङ्गनाभिः संलापं यः कुर्याद्रहसि स्थितः । स दण्ड्यो भूभुजा तूर्णमावेश्यस्तस्करालये ॥४॥ जो (पुरुष) एकान्त में स्थित होकर परायी स्त्रियों के साथ अन्तरङ्ग वार्तालाप करे वह बन्दीगृह में डालकर राजा द्वारा शीघ्र दण्डित करने योग्य है। १. वर्णशङ्करा प १ प २ ॥
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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