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________________ तृतीय अधिकार अस्वामिविक्रयप्रकरणम् श्रीमदर्हतमानम्यानन्तं चानन्त सौख्यदम्। यथागमं वर्ण्यतेऽत्र विक्रयोऽस्वामिवस्तुनः॥१॥ अनन्त सुख प्रदान करने वाले श्रीमद् तीर्थङ्कर अनन्तनाथ की वन्दना कर स्वामी की आज्ञा के बिना वस्तुओं के विक्रय के सम्बन्ध में यहाँ आगम शास्त्र के अनुसार वर्णन किया जाता है। (वृ०) पूर्वप्रकरणे निक्षेपो वर्णितो 'निक्षिप्तधनं घ कोऽपि लोभी स्वाम्याज्ञामन्तरापि विक्रीणात्यतस्तद्वर्णनं क्रियते तल प्रथममस्वामिविक्रयवरूपमाह - ___ पूर्व प्रकरण में निक्षेप का वर्णन किया गया, धरोहर रखे गये धन को कोई भी लोभी स्वामी की आज्ञा के बिना भी विक्रय करता है इसलिए उसका वर्णन किया जाता है। पहले बिना स्वामी के विक्रय के स्वरूप का कथन - प्रच्छन्नं परकीयस्य नष्टनिक्षिप्तवस्तुनः। विक्रयः स्वाम्यसत्त्वे यः स स्यादस्वामिविक्रयः॥२॥ चुराई हुई, निक्षिप्त (धरोहर के रूप में रखी गई) दूसरे की वस्तुओं का स्वामी की अनुपस्थिति में हुआ विक्रय अस्वामिविक्रय है। (वृ०) ननु स्वाभ्याज्ञान्तरा वस्तुविक्रेता कीदृशदण्डयोग्यः स्यादित्याह स्वामी की आज्ञा के विना वस्तु का विक्रय करने वाला किस प्रकार के दण्ड का अधिकारी है इसका कथन - स्वाम्य ज्ञातकृते कोऽपि विक्रीणात्यन्यवस्तु यः। स दण्ड्यश्चौरवत्ततस्तं दापयेत्स्वामिनं नृपः॥३॥ १. सौख्यदं भ१॥ २. स्वाम्या० भ १, भ२॥
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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