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________________ वेतनादानस्वरूपम् प्रव्रज्याप्रच्युतं तत्र दासं कुर्याद्वलानृपः। आनुपूा च वर्णानां दास्यं नो प्रातिलोम्यतः॥१३॥ उन दासों में जो दीक्षा से भ्रष्ट पुरुष हैं उन्हें राजा बलपूर्वक दास बनाये। इन सभी दासों (की कोटियों) में चारों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) वर्गों के क्रम से दास बनाना चाहिए, विपरीत क्रम से नहीं। (वृ०) अथ दासत्वनिराकरणविधिमाह - दासत्व से निवारण की विधि का वर्णन - दासं स्वीयमदासं यः कर्तुमिच्छेत्प्रसादतः। तस्यांसतः स आदाय साम्भः कुम्भं च भेदयेत्॥१४॥ छत्राधस्तं च संस्थाप्य मार्जयित्वा च तच्छिरः। पुष्पाक्षतानि तच्छीर्षे किरेब्रूयाच्च त्रिर्विभुः॥१५॥ अदासस्त्वमतो जातो दासत्वं च निराकृतम्। वर्तितव्यं शुद्धचित्ताभिप्रायेण निरन्तरम्॥१६॥ जो स्वामी कृपा पूर्वक अपने दास को अदास बनाना चाहता है अर्थात् दासता से मुक्त करना चाहता है वह उस दास के कन्धे से लेकर जल से भरा घड़ा फोड़े। उस (दास) को छतरी के नीचे बैठाकर (घड़े के जल से) उसका मस्तक धोकर और उसके सिर पर फूल और अक्षत बिखेरे और तीन बार कहे 'आज से तुम अदासता को प्राप्त हो गये हो'। तुम्हारी दासता समाप्त हो गई। तुम सदा शुद्ध अन्तःकरण से व्यवहार करना अर्थात् तुम स्वतन्त्र मत का आश्रय लेना। (वृ०) अथ भृत्यवेतनविषयमाह - नौकर के वेतन के विषय में कथन - भृत्याय स्वामिना देयं यथाकृत्यं च वेतनम्। आदौ मध्येऽवसाने वा यथा यद्यस्य निश्चितम्॥१७॥ अनिश्चिते वेतने तु कार्यायाद्दशमांशकम्। दापयेद्भूपतिस्तस्मै स ह्युपस्कररक्षकः॥१८॥ कार्य के अनुरूप स्वामी द्वारा नौकर को पूर्व निश्चय के अनुसार कार्य के आरम्भ, मध्य अथवा अन्त में जो जिसका वेतन निश्चित हो दिया जाना चाहिए। वेतन निर्धारित न होने पर राजा (स्वामी से) उस (नौकर) को कार्य से (हुए) लाभ का दसवाँ भाग दिलाये क्योंकि निश्चय ही वह (नौकर स्वामी की) सम्पत्ति का रक्षक है।
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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