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________________ १३० लघ्वहनीति शिल्प की शिक्षा ग्रहण करने वाला अन्तेवासी है। भृत्या कर्मकरो भृत्यः ३। मजदूरी लेकर काम करने वाला भृत्य है। कर्मकराणामधिष्ठाताधिकर्मकरः ।। भृत्यों का प्रधान अधिकर्मकर है। गृहद्वारस्थोच्छिष्टविण्मूत्राद्यशुचिस्थानशोधकः स्वामिगुह्याङ्गशोधकश्च दासः ५॥ घर के द्वार पर (घर से बाहर) रहकर जूठन, मल-मूत्र आदि अपवित्र स्थानों को स्वच्छ करने वाला और स्वामी के गुप्त अङ्गों को साफ करने वाला दास है। भृत्यस्तु त्रिविधस्तत्रायुधिकः प्रोक्तः उत्तमः।। मध्यमः कृषिकश्चैवाधमो भारस्य वाहकः॥४॥ वेतनभोगी भृत्य तीन प्रकार के कहे गये हैं – १. शस्त्रधारी उत्तम, २. कृषि कर्म करने वाला मध्यम और भारवाहक अधम। दासाः पञ्चदश ख्याताः गृहजः क्रीत आधितः। लब्धो दायागतश्चैव दुर्भिक्षे पोषितस्तथा॥५॥ युद्धे पणे च विजित ऋणभाग् ऋणमोचितः। रक्षितो भुक्तिदानेन प्रव्रज्याप्रच्युतस्तथा॥६॥ स्थितो यः स्वयमागत्य वडवा लोभतः स्थितः। अमातृपितृको यस्तु विक्रेता स्वयमात्मनः॥७॥ दास पन्द्रह (प्रकार के) कहे गये हैं - १. गृहज-स्वामी के गृह में दासी से उत्पन्न, २. क्रीत – खरीदे गये, ३. आधित - गृहीत धन के बदले न्यास रूप में निक्षिप्त, ४. लब्ध - मार्ग में प्राप्त, ५. दायागत - विवाह में प्राप्त, ६. दुर्भिक्ष में पोषित, ७. युद्ध-प्राप्त - युद्ध में जीता हुआ, ८. द्यूतजित् – द्यूत में जीता हुआ, ९. ऋणभाक् – ऋण देकर बनाया दास, १०. ऋण मोचित - ऋण-मुक्ति के बदले बनाया दास, ११. रक्षित - भोजन देकर बनाया गया दास, १२. दीक्षा से भ्रष्ट, १३. स्थित – स्वामी के पास स्वयं आकर रहने वाला, १४. स्वामी की पुत्री के लोभ से स्वयं आकर रहने वाला, १५. बिना माता-पिता वाला स्वयं अपने को विक्रय करने वाला। __(वृ०) गृहदास्यां जातो गृहजः १। १. वडबो भ १,भ २, प १, वडवो प २।।
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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