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________________ लघ्वर्हन्नीति १. भयपूर्वक, २. क्रोधपूर्वक, ३. शोकपूर्वक, ४. रिश्वत (के रूप में), ५. परिहास में, ६. बलपूर्वक, ७. भ्रमवश, ८. मत्त (अवस्था में), ९. उन्मत्त (अवस्था में), १०. रोगी (अवस्था में), ११. बाल (बुद्धि से) १२. पराधीन (अवस्था में), १३. मन्द (अवस्था में), १४. पुनः लाभ की प्रत्याशा में, १५. कुपात्र को पात्र जानकर और १६. कुधर्म में धर्म बुद्धि से दिया गया दान वस्तुतः न दिये गये के समान है। ये कलाओं (की संख्या) के समान (सोलह प्रकार के दान) सदा व्यवहार में कहे गये हैं। __ (वृ०) अवार्तदत्तमदत्तं धर्मार्थमन्तरा बोध्यं धर्मार्थदत्तं तु तन्मृतावपि तत्पुत्रेणावश्यं दानीयं। . सोलह प्रकार के अदत्त दान में रोगी को दिया गया दान अदत्त है। उसमें अपवाद यह है कि रोगी को धर्मार्थ दिया गया दान दत्त है। धर्मार्थ दिया गया दान मृतक की मृत्यु होने पर भी उसके पुत्र के द्वारा अवश्य दान करना चाहिए। यदुक्तं बृहदर्हन्नीतौ - जैसा कि बृहदर्हन्नीति में कहा गया है - रोगाउरेण दिण्णं जं दाणं मुक्खधम्मकञ्जस्स। तस्स य मरणेवि सुओ जुग्गोच्चियं तं धणं दाउं॥ अदेयं नवविधं तद्यथा अदेय दान नौ प्रकार का है जैसे - साधारणं च निक्षेपः पुत्रदाराश्च याचितम्। आधिरन्वाहितं चैवान्वये सर्वस्वमेव च॥१०॥ प्रतिज्ञातं तथान्यस्मै एतन्नवविधं नभिः। महापद्यपि नो देयमदेयमिति शासनम्॥११॥ साधारण (द्रव्य), न्यासकृत (द्रव्य), पुत्र का, पत्नी का, याचित (द्रव्य), आधि, अन्वाहित, कुटुम्ब का सर्वस्व (द्रव्य) तथा दूसरे को (देने हेतु) वचनबद्ध धन -ऐसे नव प्रकार के धन मनुष्यों द्वारा महान आपत्ति काल में भी देय नहीं हैं (अपितु) अदेय हैं - इस प्रकार शास्त्र (कथन) है। ___(वृ०) यत्केनचिद्वस्त्राभरणादि विवाहादौ याचित्वानीतमन्यहस्ते निहितं तेनाप्यन्यहस्ते स्वामिनमन्तरान्यस्मै न देयमित्यर्थः। किसी मनुष्य के द्वारा विवाह आदि में माँगकर लाया गया वस्त्राभूषण आदि दूसरे के हाथ में रख दिया गया। उसके द्वारा भी दूसरे के हाथ में रख दिया गया, वह अन्वाहित धन मूल स्वामी के अतिरिक्त अन्य को देय नहीं यह अर्थ है।
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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