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________________ ६६ लघ्वर्हन्नीति सत्सु पुत्रेषु तेनैव ऋणं देयं सुतेन च। येन पितृवसु प्राप्तं क्लीबान्धबधिरादिषु॥२२॥ कई पुत्रों के होने पर उन्हीं पुत्रों द्वारा ऋण देय है जिससे नपुंसक, अन्धे, बधिर आदि भाइयों में पिता का धन प्राप्त हो। . (वृ०) अविभक्तभ्रातृभिर्दम्पत्या पितृपुत्राभ्यां वावश्यककृत्यार्थमृणं सर्वानुमत्यैव ग्राह्यं विभक्तेभ्यस्तु धनी प्रातिभाव्यतयैव देयात् तदाह - अविभाजित भाइयों, दम्पति (स्त्री-पुरुष) अथवा पिता-पुत्र आदि को आवश्यक कार्य हेतु ऋण सबकी अनुमति से ग्रहण करना चाहिए और विभक्त होने पर धनी को ऋणी की (धन वापस कराने की जमानत पर) धन देना चाहिए, इसका कथन भ्रातृणामाविभक्तानां दम्पत्योः पितृपुत्रयोः। ऋणलाभस्त्वेकमत्या विभक्ते प्रातिभाव्यतः॥२३॥ भाइयों में विभाजन न होने पर पति, पत्नी और पिता-पुत्र को सहमति से ऋण लेना चाहिए और यदि विभाजन हो चुका हो तो प्रतिभूति (धरोहर) रूप में रखकर ऋण प्राप्त करना चाहिए। (वृ०) अविभक्तानां ऋणलाभः सर्वानुमत्या स्यात् विभक्तानां तु प्रातिभाव्यतः। दीनत्वादिति लाभः, इति दानस्याप्युपलक्षणम् - ___ (परस्पर विभाजन न हुआ हो ऐसे) अविभक्तजनों को ऋण सबकी अनुमति से लेना चाहिए जबकि विभक्त होने पर धरोहर के अनुसार ऋण लेना चाहिए। निर्धनता के कारण दिये गये धन को लाभ की संज्ञा दी गई है, इस प्रकार यह दान का भी उपलक्षण है - किं नाम प्रातिभाव्यमित्याह - प्रातिभाव्य या जमानतदार क्या है - प्रतिभूः सदृशस्तस्य भावस्तद्धर्मशक्तिता। प्रातिभाव्यं त्रिधा प्रोक्तं दृष्टिप्रत्ययदानतः॥२४॥ प्रतिभू के सदृश उसका भाव, धर्म और शक्ति, प्रतिभूति दृष्टि, प्रत्यय और दान रूप तीन प्रकार की कही गई है। दर्शने यथा यस्मिन् काले त्वमेनं याचयिष्यसि तदेवैनं दर्शयिष्यामि इति। प्रतिभूति या जमानत लेने वाला (यह विश्वास दिलाये) जिस समय तुम ऋणी को माँगोगे उसी समय ऋणी को दिखा (समक्ष प्रस्तुत कर) दूंगा ऐसा दृष्टि प्रतिभू है। .
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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