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॥ गाथा २ जीना बुटा राख्दाना अशा जगत्रय-त्रणलोक; स्वर्ग, मृत्यु श्री (स्वयण नीवंत अने पातालने
वीतराग-रागद्वेष गया ले जेना आधार आधारभूत
त्वयि तमारी आगल कृपा-दया; मेहेरबानी मुग्ध लावात लोले जावे अवतार प्रवेश
वि-विशेष जाण उर्वार-खे करीने वारवा योग्य प्रनो हे प्रभु संसार विकार-जन्म जरा मर- विझपयामि विनंति करुं ई
णरूप रोग (मटामवा) किंचित् कांश लगार वैद्य वैद्य समान
__ जगत्रयाधार कृपावतार, दुर्वारससार विकारवैद्य; श्रीवीतराग त्वयि मुग्धनावा, विज्ञप्रनो विझपयामि किंचित् ॥२॥
शब्दार्थः हे जग जगतना श्राधार ! हे कृपावतार ! फुःखे वारवा योग्य एवो जन्म जरा मरण रूप संसार तेना विकारने दूर करवाने वैद्य समान एवा हे श्री वीतराग ! हे विशेष जाण ! हुं नमारी