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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः हैं-आरम्भी और अनारम्भी। तथा लिखा है, जो घरवास से निवृत्त है वह दोनों प्रकार की हिंसा का त्याग करता है। किन्तु जो गृहवासी है वह आरम्भी हिंसा नहीं छोड़ सकता। अतः श्रावकप्रज्ञप्ति उत्तरकाल की रचना होनी चाहिए। श्रावकप्रज्ञप्ति की कई चर्चाएँ पं. आशाधर के सागारधर्मामृत में मिलती हैं और ये चर्चाएँ हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र में भी हैं। योगशास्त्र पं. आशाधर के सामने था यह तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है, अतः आशाधर ने श्रावकप्रज्ञप्ति को भी देखा हो यह असम्भव नहीं है। श्रावकप्रज्ञप्ति की चर्चाएँ मननीय हैं। यह श्रावकाचार का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और इसमें ऐसी भी अनेक चर्चाएँ हैं जो दिगम्बर श्रावकाचारों में नहीं पायी जातीं। प्रस्तावना में पं. बालचन्द्र जी ने उनका कथन किया है। १. गाथा ७२ में जिनका संसार अर्धपुद्गलपरावर्त मात्र शेष रहा है उन्हें शुक्लपाक्षिक और शेष को कृष्णपाक्षिक कहा है। २. गाथा ७७ की टीका में तीर्थंकरों को भी स्त्रीलिंग से सिद्ध हुआ कहा है किन्तु प्रत्येकबुद्धों को पुल्लिंगी ही कहा है। अनुवाद में यह अंश छूट गया है। ३. कर्म और जीव में कौन बलवान् है इसका निरूपण करते हुए कहा है कत्थइ जीवो वलियो कत्थइ कम्माइ हुंति वलियाई। जम्हा णंता सिद्धा चिटुंति भवमि वि अणंता ॥ १०१॥ यदि कहीं जीव बलवान् है तो कहीं पर कर्म बलवान् है। क्योंकि अनन्त जीव सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं और अनन्त जीव संसार में वर्तमान हैं। स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा के कथन से, जिसमें केवल कर्म की बलवत्ता बतलायी है, उक्त कथन अधिक संगत प्रतीत होता है। ४. अहिंसाणुव्रत के सम्बन्ध में शंका-समाधानपूर्वक जो विवेचन किया गया है वह महत्त्वपूर्ण है। उसी की कुछ झलक पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के अहिंसावर्णन में पायी जाती है। वह वर्णन गाथा १०७ से २५९ तक है। इसमें एक शंका यह की गयी है कि आत्मा तो नित्य है उसका विनाश होता नहीं, तब अहिंसाव्रत निरर्थक क्यों नहीं है? इसके उत्तर में कहा है तप्पज्जायविणासो दुक्खुप्पाओ अ संकिलेसो य। एस वहो जिण भणिओ तज्जेयव्वोपयत्तेण ॥ १९१॥ इसी गाथा की छाया सागारधर्मामृत के नीचे लिखे श्लोक में है दुःखमुत्पद्यते जन्तोर्मनः संक्लिश्यतेऽस्यते। तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिंसा हेया प्रयत्नतः॥४.१३ ॥ जिसमें जीव को दुःख होता है, उसके मन में संक्लेश होता है और उसकी वह पर्याय नष्ट हो जाती है, उस हिंसा को प्रयत्न करके छोड़ना चाहिए। अहिंसा पालन के लिए पडिसुद्धजलग्गहणं दारुय घनाइयाण तह चेव। गहियाण वि परिभोगो विहीइ तसरक्खणवाए ॥ २५९॥ त्रस जीवों की रक्षा के लिए वस्त्र से छाना हुआ त्रसरहित शुद्ध जल ग्रहण करना चाहिए। उसी प्रकार ईंधन और धान्य आदि भी जन्तुरहित लेना चाहिए। तथा गृहीत जलादि का भी उपभोग विधिपूर्वक
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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