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________________ - ५२ ] कारकादिसम्यक्त्वानां लक्षणम् समस्तस्यैव भावार्थमुपदर्शयति तव्विहखओवसमओ तेसिमणूणं अभावओ चैव । एवं विचित्तरूवं सनिबंधणमो मुणेयव्वं ॥ ५१ ॥ ३७ तद्विषयोपशमतस्तेषामणूनाम्, मिथ्यात्वाणूनामित्यर्थः । अभावतश्चैव तेषामेवेति वर्तते । एवं विचित्ररूपं क्षायोपशमिकादिभेदेनेति भावः । सनिबन्धनमेव सकारणं मुणितव्यम् । तथाहित एव मिथ्यात्वपरमाणवस्तथाविधात्मपरिणामेन क्वचित्तथा शुद्धिमापद्यन्ते यथा क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति, तत्रापि क्वचित्सातिचारं कालापेक्षया, क्वचिन्निरतिचारम्, अपरे तथा यथौपशमिकं, क्षयादेव क्षायिकमिति ॥५१॥ अपरेऽप्यस्य भेदाः संभवन्तीति कृत्वा तानपि सूचयन्नाह - " किं चेहुबाहिभेया दसहावीमं परूवियं समए । ओहेण तं पिमेसि भेयाणमभिन्नरूवं तु ॥ ५२ ॥ कि चेहोपाधिभेदादाज्ञादिविशेषण भेदादित्यर्थः । दशधापीदं दशप्रकारमप्येतत्सम्यक्त्वं प्ररूपितं समये आगमे । यथोक्तं 'प्रज्ञापनायाम् - सिग्गुवसरु आणरुई सुत्तबीयरुइमेव । अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेव घम्मरुई || कार्यका उपचार करके दोपक सम्यक्त्व कहा गया है । लोकव्यवहार में घोको आयु इसीलिए कहा जाता है कि वह उस आयुकी स्थिरताका कारण है, स्वयं आयु नहीं है । यही अभिप्राय इस दीपक सम्यक्त्वके विषय में भी समझना चाहिए ॥ ५० ॥ आगे, इस सभी आशयको दिखलाते हैं न मिथ्यात्व परमाणुओंके उस प्रकारके अभाव से भी इस प्रकारके विचित्र स्वरूपवाले उस सम्यग्दर्शनको सकारण ही जानना चाहिए। अभिप्राय यह है कि जीवके उस जाति के परिणाम विशेष से मिथ्यात्व माहनीयके परमाणु किसोके इस प्रकारकी शुद्धिको प्राप्त होते हैं कि जिसके आश्रयसे सातिचार अथवा निरतिचार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्रादुर्भूत होता है । तथा किसी पशमिक सम्यक्त्व प्रकट होता है । उनके ही क्षयसे किन्हीं के क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है ॥५१॥ आगे इस सम्यक्त्वके जो अन्य भेद भी सम्भव हैं उनकी सूचना की जाती है उपर्युक्त भेदोंके अतिरिक्त उपाधिके भेदसे इस सम्यक्त्वको आगममें दस प्रकारका भी कहा गया है । वह भी सामान्यसे पूर्वोक्त क्षायोपशमिकादि भेदोंसे अभिन्न स्वरूपवाला है - उनसे भिन्न नहीं है, उन्हीं के अन्तर्गत है । विवेचन - प्रज्ञापना (गा. ११५ ) व उत्तराध्ययन ( २८- १६ ) आदि आगम ग्रन्थोंमें दर्शनआर्यके प्रसंगमें सम्यक्त्वके उपर्युक्त क्षायोपशमिकादि व कारकादि भेदोंके अतिरिक्त अन्य दस भेद भी निर्दिष्ट किये गये हैं । उनको पूर्वोक्त भेदोंसे भिन्न नहीं समझना चाहिए - वे यथा १. अ सुणिबंधणमो । २. अ क्षयोपशमकास्तेषां । ३. अ कि चेहुवायभेया दसहावि संरूविहं सम ए । ४. अ प्रज्ञापनायां आणiरुइत्तरु इत्यादि । निसग्गु ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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