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________________ ३६ श्रावकप्रज्ञप्तिः क्षायिकानन्तरं कारकाद्याह जं जह भणियं तं तह करेइ सइ जमि कारगं तं तु । रोयगसम्मत्तं पुण रुइमित्तकरं मुणेयव्वं ॥४९।। यद्यथा भणितं सूत्रेऽनुष्ठानं तत्तथा करोति सति यस्मिन् । सम्यग्दर्शने परमशुद्धिरूपे । कारकं तत्तु कारयतीति कारकम् । रोचकसम्यक्त्वं पुनः रुचिमात्रकरं मुणितव्यम्, विहितानुष्ठाने तथाविधशुद्धयभावात्, रोचयतीति रोचकम् ॥४९॥ सयमिह मिच्छद्दिट्ठी 'धम्मकहाईहि दीवइ परस्स । सम्मतमिणं दीवग कारणफलभावओ नेयं ॥५०॥ स्वयमिह मिथ्यादृष्टिरभव्यो भव्यो वा कश्चिदङ्गारमर्दकवत् । अथ च धर्मकथादिभिधर्मकथया मातस्थानानुष्ठानेनातिशयेन वा केनचिट्टीपयतीति प्रकाशयति । परस्य श्रोतः। सम्यक्त्वमिदं व्यञ्जकम् । आह -मिथ्यादृष्टः सम्यक्त्वमिति विरोधः। सत्यम्, किन्तु कारणफल भावतो ज्ञेयं तस्य हि मिथ्यादृष्टेरपि यः परिणामः स खलु प्रतिपत्तुसम्यक्त्वस्य कारणभावं प्रतिपद्यते तैद्भावभावित्वात्तस्य, अतः कारणे एव कार्योपचारात्सम्यक्त्वाविरोधः यथायुघृतमिति ॥५०॥ क्षीण हो जानेपर क्षायिक सम्यक्त्व होता है। पर उसकी व्याख्या करते हुए हरिभद्र सूरिने इतना विशेष कहा है कि क्षएक श्रेणिमें प्रविष्ट होते हुए जीवके दर्शनमोहनीयका क्षय होनेपर वह क्षायिक सम्यक्त्व होता है। षट्खण्डागम ( १, १, १४५-पु. १, पृ. ३९६ ), सर्वार्थसिद्धि (१-८) और तत्त्वार्थवार्तिक (९, ७, १२) आदिमें इस क्षायिक सम्यक्त्वका सद्भाव चतुर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली ( चौदहवें ) गुणस्थान तक बतलाया गया है ॥४४॥ अब पूर्वनिर्दिष्ट (४३) कारकादि सम्यक्त्व भेदोंमें कारक और रोचक इन दोका स्वरूप कहा जाता है जिस सम्यक्त्वके होनेपर प्राणी आगममें जिस अनुष्ठानको जैसा कहा गया है उसे उसी प्रकारसे करता है उसका नाम कारक सम्यक्त्व है। अभिप्राय यह है कि जो सम्यक्त्व 'कारयतोति कारकम्' इस निरुक्तिके अनुसार आगमविहित अनुष्ठानको उसी रूपमें कराता है उसे कारक सम्यक्त्व कहत है। रोचक सम्यक्त्वको रुचिमात्र करनेवाला जानना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि आगविहित अनुष्ठान करने में जीव यद्यपि उस प्रकार की शुद्धिके अभावमें असमर्थ होता है, तो भा इस सम्यक्त्वके होनेपर उसके उक्त अनुष्ठान-विषयक रुचि अवश्य रहती है। इससे उसका 'रोचक' यह सार्थक हो नाम है ।।४९॥ आगे दीपक सम्यक्त्वका स्वरूप कहा जाता है प्राणी यद्यपि स्वयं मिथ्यादृष्टि है, फिर भी वह धर्मकथा आदिके द्वारा दूसरेके सम्यक्त्वको प्रकाशित करता है, ऐसे सम्यक्त्वको कारण-कार्यभावसे दीपक जानना चाहिए। विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि कोई जीव यद्यपि भव्य या अभव्य होकर स्वयं मिथ्यादृष्टि होता है फिर भी वह धर्मचर्चाके आश्रयसे, माता जैसे विशिष्ट अनुष्ठानसे अथवा किसी अतिशय विशेषसे दूसरेके सम्यक्त्याको प्रकट करता है। उसकी इस प्रकारकी परिणतिको कारणमें १. अधम्मक हादीहिं । २. अ मिथ्यादृष्टिरभन्बो वा । ३. अ ते ताहि भावित्वात्तस्स ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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