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________________ १६ श्रावकप्रज्ञप्तिः २०क्षयोपशम एकेन्द्रियादिसंज्ञानिबन्धनं च नामेति न दोषः। शरीरनाम यदुदयादौदारिकादिशरीरभावः। अङ्गोपाङ्गनाम यदुदयादङ्गपाङ्गोनिवृत्तिः शिरःप्रभृतीन्यङ्गानि श्रोत्रादीन्यङ्गोपाङ्गानि । उक्तं च सीसमुरोदरपिट्ठी दो बाहू ऊरुभयाय अठेंगा। अंगुलिमाइ उवंगा अंगोवंगाई सेसाई ।। बन्धननाम यत्सर्वात्मप्रदेशैर्गृहीतानां गृह्यमाणानां च पुद्गलानां संबन्धजनकं अन्यशरीरपुद्गलैर्वा जतुकल्पमिति । संघातननाम यदुदयादौदारिकादिशरीरयोग्यपुद्गलग्रहणे शरीररचना अंगोपांग नामकर्म औदारिक शरीरांगोपांग, वैक्रियिक शरीरांगोपांग और आहारक शरीरांगोपांगके भेदसे तोन प्रकारका है। जिसके उदयसे औदारिकशरीर रूपसे परिणत पुद्गलोंका अंग, उपांग और अंगोपांगोंके रूप में विभाजन होता है वह औदारिकशरीरांगोपांग कहलाता है। इसी प्रकार वैक्रियिक और आहारक शरीरांगोपांग नामकोका भी स्वरूप समझना चाहिए। तैजस और कार्मण इन दो शरीरोंके अंगोपांगोंकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि वे जीवप्रदेशोंके समान होते हैं । जिसके उदयसे समस्त आत्मप्रदेशोंके द्वारा पूर्व में ग्रहण किये गये तथा वर्तमान में ग्रहण किये जानेवाले पुद्गलोंका परस्पर अथवा अन्य शरीरगत पुद्गलोंके साथ लाखके समान सम्बन्ध होता है उसका नाम बन्धन नामकर्म है। वह औदारिकशरीरबन्धन आदिके भेदसे पाँच प्रकारका है। जिसके उदयसे समस्त आत्मप्रदेशों के द्वारा पूर्व में ग्रहण किये गये तथा वर्तमानमें ग्रहण किये जानेवाले औदारिक शरीरगत पुद्गलोंका परस्परमें तथा अन्य शरीरगत पुद्गलोंके साथ एकता रूप सम्बन्ध होता है उसे औदारिक शरीरबन्धन नामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार शेष चार बन्धन नामकर्मोंका भी स्वरूप जानना चाहिए। जिसके उदयसे औदारिक आदि शरीरोंके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण होनेपर उन शरीरोंकी रचना होती है उसे संघातन नामकर्म कहते हैं । वह भी औदारिक आदि शरीरोंके भेदसे पांच प्रकारका है। जिसके उदयसे औदारिक शरीरके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण होनेपर औदारिक शरीरकी रचना होती है उसे औदारिक शरीर संघातन नामकमं कहा जाता है। इसी प्रकार शेष चार संघातन नामकर्मों का भी स्वरूप जान लेना चाहिए। जो वज्रऋषभनाराच आदि संहननोंका कारण है उसे संहनन नामकर्म कहा जाता है। वह छह प्रकारका है-वज्रर्षभनाराच, अर्धवज्रर्षभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सपाटिका संहनन नामकर्म । वज्रका अर्थ कीलिका, ऋषभका अर्थ परिवेष्टन पट्ट और नाराचका अर्थ उभयतः मर्कटबन्ध है। तदनुसार जिसका उदय होनेपर उभयतः मर्कटबन्धसे बंधी हुई व पट्टके आकार तीसरी हड्डोसे वेष्टित दो हड्डियोंके ऊपर उन तीनों हड्डियोंको भेदक कीलिकासंज्ञक वज्र नामक हड्डी हुआ करती है उसे वज्रर्षभनाराचसंहनन नामकर्म कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे हड्डियोंके बन्धनविशेष में वज्र, ऋषभ और नाराच आधे होते हैं उसे अर्धवज्रर्षभनाराचसंहनन नामकर्म कहा जाता है । जिस कर्मके उदयमें हड्डियोंके बन्धनमें केवल उभयतः मर्कटबन्धरूप नाराच ही रहता है उसे नाराचसंहनन नामकर्म कहते हैं । जिस कर्मका उदय होनेपर हड्डियोंके परस्पर बन्धनमें आधा नाराच ( मर्कटबन्ध ) रहता है उसे अर्धनाराचसंहनन नामकर्म कहा जाता है । जिस कर्मके उदयसे हड्डियां परस्पर कीलिका मात्रसे सम्बद्ध रहा करती हैं उसका नाम कीलिका संहनन नामकर्म है। जिस कर्मका उदय होनेपर हड्डियां दोनों ओर चमड़े, स्नायु और मांससे सम्बद्ध रहा करती हैं वह सृपाटिकासंहनन नामकर्म कहलाता है । जो कर्म चतुरस्रादिरूप शरीर संस्थानका कारण है उसे संस्थान नामकर्म कहा जाता है। वह समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, १. अ शिरःप्रवृत्तीत्यंगानि ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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