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________________ - २० ] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्म प्ररूपणा १५ रामगतिभेदविभागतो गतिभेदविभागेन । भणितमुक्तं तीर्थंकरगेणधरैः । तद्यथा - नारका क तिर्यगाथुष्कं मनुष्यायुष्कं देवायुकमिति ॥ १९ ॥ नामं दुचत्तभेयं गइजाइ सरीरअंगुवंगे य । बंधन - संघायण - संघयण संठाणनामं च ॥ २० ॥ नाम प्रागभिहितशब्दार्थं द्विचत्वारिंशत्प्रकारम् । भेदानाह गतिनाम यदुदयान्नरकादिगतिर्गमनम् । जातिनाम यदुदयादेकेन्द्रियादिजात्युत्पत्तिः । आह-स्पर्शनादीन्द्रियावरणक्षयोपशमसद्भावादेकेन्द्रियादित्वं नाम चौदयिको भावः तत्कथमेतदिति । उच्यते - तदुपयोगादिहेतुः पर्याय में अवस्थान होता है उसे देवायु कहा जाता है । इस प्रकार ये आयुकर्मके चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । गाथा में जो 'नवरं' इस निपातको ग्रहण किया गया है वह नारकायु आदिके अन्य अवान्तर भेदोंका सूचक है ||१९|| आगे नामकर्मके ४२ भेदोंमें गतिको आदि लेकर संस्थान पर्यन्त आठ भेदोंका निर्देश किया जाता है नामकर्म बयालीस प्रकारका है - उनमें १. गतिं, २. जाति, ३. शरीर, ४. अंगोपांग, ५. बन्धन, ६. संघातन, ७. संहनन और ८. संस्थान ये प्रथम आठ भेद हैं । विवेचन -जिसके उदयसे जीव नरकादि गतिको प्राप्त होता है उसे गति नामकर्म कहते हैं । वह नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगतिके भेदसे चार प्रकारका है। जिसके उदयसे जीव नरकगतिको प्राप्त होता है उसका नाम नरकगति नामकर्म है । इसी प्रकार शेष तीन गतिनामकर्मों का भी स्वरूप समझना चाहिए। जिसके उदयसे जीव एकेन्द्रिय आदि जीवोंमें उत्पन्न होता है उसे जातिनामकर्म कहा जाता है । अभिप्राय यह है कि जीवोंमें जो एकेन्द्रियत्व आदिरूप सदृश परिणाम हुआ करता है उसका नाम जाति है । वह जिस कर्मके उदयसे हुआ करती है उसे भी कारण में कार्यका उपचार करके जातिनामकर्म कहा जाता है । वह एकेन्द्रिय आदिके भेदसे पाँच प्रकारका है । उनमें जिसके उदयसे जीव एकेन्द्रिय जातिमें उत्पन्न होता है वह एकेन्द्रिय जातिनामकर्म और जिसके उदयसे वह द्वोन्द्रिय जातिमें उत्पन्न होता है वह द्वीन्द्रिय जातिनामकमं कहलाता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति नामकर्मोंका भी स्वरूप समझना चाहिए। यहां शंका उपस्थित होती है कि स्पर्शन आदि इन्द्रियावरणोंके क्षयोपशमके सद्भावसे एकेन्द्रिय अवस्था होती है, ऐसी अवस्था में उसे औदयिक कैसे माना जा सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि क्षयोपशम उनके उपयोग आदिका कारण है तथा ऐकेन्द्रिय आदि संज्ञाका कारण नामकर्म है । ऐसा होने से यहाँ दोषको सम्भावना नहीं है । जिसके उदयसे जीवके दारिक आदि शरीरका सद्भाव होता है उसे शरीर नामकर्म कहते हैं । वह पांच प्रकारका है - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस ओर कार्मण । जिसके उदयसे जीव औदारिक शरोरके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण कर उन्हें औदारिक शरीर के रूपमें परिणमाता है उसे औदारिक शरीर नामकर्म कहते हैं । इसी प्रकार शेष वैकियिक आदि चार शरीर नामकर्मों का भी स्वरूप जानना चाहिए। जिसके उदयसे शिर आदि अंगों को और श्रोत्र आदि अंगोपांगों की रचना होती है वह अंगोपांग नामकर्म कहलाता है । शिर, वक्ष, पेट, पीठ, दो हाथ और ऊरु ( पांव ) ये आठ हैं । अंगुलि आदिकों को उपांग और शेष ( अंगुलियों के पर्व आदि ) को अंगोपांग माना जाता है । यह १. अ भणितं तीर्थकर । २. म गति गमनं ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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