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________________ प्रस्तावना जं दामगंठिणा, जं च सक्केइ पलिवणगादिसु मुंचिउं छिंदिउं वा।......(श्रा. प्र. २५८ की टीका) ___अत्रायं विधिः-बन्धो द्विपदानां चतुष्पदानां वा स्यात् । सोऽपि सार्थकोऽनर्थको वा। तत्रानर्थकस्तावच्छावकस्य कर्तुं न युज्यते। सार्थकः पुनरसौ द्वेधा सापेक्षो निरपेक्षश्च । तत्र सापेक्षो यो दामग्रन्थ्यादिना विधीयते, यश्च प्रदीपनादिषु मोचयितुं छेत्तुं वा शक्यते। निरपेक्षो यन्निश्चलमत्यर्थममी बध्यन्ते.......(सा. ध. स्वो. टीका ४-१५) । यहाँ पूर्वोक्त श्रा. प्र. गत सन्दर्भ के अधिकांश पदों का संस्कृत में प्रायः रूपान्तर किया गया है व अभिप्राय दोनों का सर्वथा समान है। ___३. श्रा. प्र. (२६०-२६१) में सत्याणुव्रत के स्वरूप का निर्देश करते हुए कन्या-अलीक, गो-अलीक-भू-अलीक, न्यासहरण और कूटसाक्षित्व को परित्याज्य निर्दिष्ट किया गया है। सा. ध. (४-३६) में भी उसके स्वरूप को प्रकट करते हुए उन पाँचों को प्रायः उन्हीं शब्दों में गर्भित कर लिया गया है। उसकी स्वो. टीका में पृथक्-पृथक् उनका स्वरूप भी उसी रूप में निर्दिष्ट किया गया है। ४. श्रा. प्र. गा. ३२६ की टीका में अतिथि का स्वरूप प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो भोजन के लिए भोजनकाल में उपस्थित हुआ करता है उसे अतिथि कहा जाता है। अपने निमित्त से भोजन को निर्मित करनेवाले गृहस्थ के लिए साधु ही अतिथि होता है। ऐसा निर्देश करते हुए वहाँ आगे 'तिथि-पर्वोत्सवाः सर्वे' इत्यादि श्लोक को उद्धृत किया गया है। सा. ध. (५-४२) में उक्त अतिथि शब्द के निरुक्त अर्थ को प्रकट करते हुए कहा गया है कि जो ज्ञानादि की सिद्धि के कारणभूत शरीर की स्थिति के निमित्त भोजन को प्राप्त करने के लिए स्वयं श्रावक के घर जाता है (यस्तनुस्थित्ययान्नाय यत्नेन स्वयम् अतिति सोऽतिथिः) वह अतिथि कहलाता है। प्रकारान्तर से यहाँ यह भी कहा गया है कि अथवा जिसके लिए कोई तिथि नहीं है उसे अतिथि जानना चाहिए। यह कहते हुए प्रकृत श्लोक की स्वो. टीका में उक्त 'तिथि-पर्वोत्सवाः सर्वे' इत्यादि श्लोक को भी उद्धृत किया गया है। यह प्रसंग उक्त श्रा. प्र. की टीका से प्रभावित रहा दिखता है। ५. श्रा. प्र. (३२९-३०) में बारह व्रतों को प्ररूपणा के पश्चात् गृहिप्रत्याख्यान के कृत, कारित व अनुमत इन तीन करणों तथा मन, वचन व काय इन तीन योगों के साथ वर्तमान, भूत और भविष्यत इन तीन कालों के संयोग से १४७ भंगों का निर्देश किया गया है। सा. ध. (४-५) में भी सामान्य से पाँच अणुव्रतों के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमत इनके आश्रय से स्थूल वध आदि से विरत होने पर क्रम से अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत होते हैं। प्रकृत श्लोक की स्वो. टीका में इसका स्पष्टीकरण करते हुए मन, वचन और काय इनमें से प्रत्येक के आश्रित कृत, कारित और अनुमत इनके संयोग से ४९ भंग दिखलाये गये हैं। वे चूँकि वर्तमान, भूत और भविष्यत् इन तीन कालों से सम्बद्ध रहते हैं, इसलिए उन्हें तीन कालों से गुणित करने पर अहिंसाणुव्रत के वे समस्त भंग १४७ (४६४ ३) होते हैं। ___इस प्रकार दोनों ग्रन्थों के इस विवेचन में पर्याप्त समानता है। विशेष इतना है कि श्रा. प्र. में जहाँ ह व्रतों का निरूपण कर चुकने के पश्चात् प्रत्याख्यान के रूप में प्रत्येक व्रत के ये भंग दिखलाये गये हैं वहाँ सा. ध. में प्रथम अहिंसाणुव्रत के प्रसंग में इन ही भंगों को दिखलाकर उसके समान सत्याणुव्रत आदि शेष अन्य व्रतों में भी इनको योजित करने का निर्देश कर दिया गया है। यथा-एते च भङ्गा अहिंसाणुव्रतवद्वतान्तरेष्वपि द्रष्टव्याः। इस प्रसंग में श्रा. प्र. की टीका में अन्यत्र कहीं से तीन गाथाओं को उद्धृत कर उनके द्वारा उक्त ४६ भंगों को तीन कालों से क्यों गुणा किया जाता है, इसका स्पष्टीकरण जिन शब्दों में किया गया है
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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