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________________ ३२ . श्रावकप्रज्ञप्तिः श्रा. प्र. में सामान्य से जिस बारह प्रकार के श्रावकधर्म की प्ररूपणा की गयी है वह यहाँ नैष्ठिक (द्वितीय) श्रावक के धर्म के अन्तर्गत है। यहाँ नैष्ठिक-निष्ठापूर्वक श्रावकधर्म के परिपालक-श्रावक के दर्शनिक आदि ग्यारह स्थान-जिन्हें श्रावकप्रतिमा कहा जाता है-निर्दिष्ट किये गये हैं। (३. २-३)। इनमें प्रथम दर्शनिक श्रावक का वर्णन यहाँ तीसरे अध्याय में विस्तार से किया गया है। दूसरे व्रती श्रावक के प्रसंग में पूर्वोक्त पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के श्रावकधर्म की चर्चा चौथे और पाँचवें इन दो अध्यायों में की गयी है। छठे अध्याय में द्वितीय (नैष्ठिक) श्रावक की दिनचर्या का निर्देश करते हुए अन्त में उसे निर्वेदादिभावना के लिए प्रेरित किया गया है। तीसरे से लेकर ग्यारहवें श्रावक तक की प्ररूपणा यहाँ सातवें अध्याय में की गयी है। अन्तिम आठवें अध्याय में समाधिमरण (सल्लेखना) को सिद्ध करनेवाले तीसरे साधक श्रावक का विस्तार से विवेचन किया गया है। अब हम यहाँ श्रा. प्र. से इसकी कहाँ तक समानता है, इसका संक्षेप में विचार करना चाहेंगे। यहाँ यह स्मरणीय है कि पं. आशाधर ने जिस योगशास्त्र का पर्याप्त उपयोग किया है उसका आधार प्रस्तुत श्रा. प्र. भी रही है। सर्वप्रथम यहाँ हम उस विशेषता पर विचार करेंगे जो श्रा. प. में तो नहीं देखी जाती, पर यहाँ अनिवार्य रूप से वह देखी जाती है। वह यह है श्रा. प्र. में कहीं किसी भी प्रसंग में उन मद्य, मांस, मधु और रात्रिभोजन आदि की चर्चा नहीं की गयी जिन्हें जैन सम्प्रदाय में निकृष्ट माना गया है। हाँ, उसकी टीका (२८५) में वृद्ध सम्प्रदाय के अनुसार उपभोग-परिभोगपरिमाण के प्रसंग में उत्सर्ग व अपवाद के रूप में भोजन के विधान को दिखलाते हुए अशनादिरूप चार प्रकार के आहार में उक्त मद्य, मांस व मधु आदि का परिहार अवश्य कराया गया है। योगशास्त्र में भी उनका हेयरूप में विस्तृत वर्णन देखा जाता है (३. ६-७०)। इसी प्रकार इस सागारधर्मामृत में भी यथाप्रसंग उनकी निकृष्टता को बतलाकर उनके परिहार की प्रेरणा की गयी है। यहाँ दूसरे अध्याय में प्रथम पाक्षिक-देशसंयम को प्रारम्भ करनेवाले-श्रावक के आठ मूलगुणों में ही उक्त मद्यादि की सदोषता का विचार करते हुए उनका परित्याग कराया गया है (२, २-१९)। श्रावकप्रज्ञप्ति से प्राचीन रत्नकरण्डक (६६) में भी उनके परित्याग को आठ मूलगुणों के अन्तर्गत निर्दिष्ट किया गया है तथा आगे चलकर भोगोपभोगपरिमाणव्रत में पुनः उनके परित्याग की प्रेरणा की गयी है। सा. ध. में भी इसी प्रकार से उनक भोगोपभोगपरिमाणव्रत के प्रसंगमें (५-१५) पुनः परित्याग कराया गया है। इसके पूर्व प्रथम दार्शनिक श्रावक के लिए भी वहाँ उपर्युक्त मद्यादि तथा उनसे सम्बद्ध अन्य मद्यपायी आदि के संसर्ग आदि को भी हेय बतलाया गया है (३, ६-१३)। प्रकृत श्रा. प्रज्ञप्ति के साथ सा. ध. की जो समानता दिखती है वह इस प्रकार है १. श्रा. प्र. और योगशास्त्र में बारह व्रतों के स्वरूप व उनके अतिचारों का जिस प्रकार से निरूपण किया गया है उसी प्रकार सा.ध. (अध्याय ४-५) में भी द्वितीय नैष्ठिक श्रावक के अनुष्ठान के रूप में उनका निरूपण कुछ विस्तार से किया गया है। २. सा. ध. की स्वो. टीका में जो व्रतातिचारों को विशेष विकसित किया गया है वह प्रस्तुत श्रा. प्र. अथवा ऐसे ही किसी अन्य ग्रन्थ के आधार से किया गया है। कहीं-कहीं तो वह छायानुवाद-जैसा दिखता है। उदाहरणस्वरूप अहिंसाणुव्रत के अतिचारों के प्रसंग में इस सन्दर्भ का मिलान किया जा सकता है तदत्रायं पूर्वाचार्योक्तविधिः-बंधो दुविहो दुपयाणं चउप्पयाणं च अट्ठाए अणट्ठाए। अणट्ठाए ण वट्टए बंधिउं। अट्ठाए दुविहो सावेक्खो णिरवेक्खोय।णिरवेक्खो णिच्चलं धणियं जंबंधइ। सावेक्खो १. श्रावक के मूलगुणों का निर्देश सम्भवतः किसी श्वे. ग्रन्थ में नहीं किया गया है। हाँ, त. भाष्य (७-१६) में जो दिग्वतादि सात को उत्तर व्रत कहा गया है उससे पाँच अणुव्रतों को मूल व्रत कहा जा सकता है।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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