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________________ - ३९१ ] जिन प्ररूपित धर्मगुणभावना इय अप्पविडियगुणाणुभावओ बंधहासभावाओ । पुव्विल्लस्स य. खयओ सासयसुक्खो धुव्वो मुक्खो ॥३८९॥ एवमुक्तेन प्रकारेण । अप्रतिपतितगुणानुभावतः सततसमवस्थितगुणसामर्थ्येन । बन्धासात् प्रायो बन्धाभावादित्यर्थः । प्राक्तनस्य च बन्धस्य क्षयात्तेनैव सामर्थ्येन । एवमुभयथा बन्धाभावे शाश्वत सौख्यो ध्रुवो मोक्षोऽवश्यंभावीति ॥ ३८९ ॥ बोधिफलमाह - २२७ एतदेव सूत्रान्तरेण भावयन्नाह - सम्मत्तंमि य लद्धे पलिय पहुत्तेण सावओ हुज्जा । चरणो सम-खयाणं सागरसंखंतरा हुंति ॥ ३९० ॥ सम्यक्त्वे च लब्धे तत्त्वतः पल्योपमपृथक्त्वेन श्रावको भवति । एतदुक्तं भवति यावति कर्मण्यपगते सम्यक्त्वं लभ्यते तावतो भूयः पत्योपमपृथक्त्वेऽपगते देशविरतो भवति । पृथक्त्वं द्विःप्रभृतिरानवभ्य इति । क्लिष्टेतरविशेषाच्च द्वयादिभेद इति । चरणोपशम-क्षयाणामिति चारित्रोपशमश्रेणि-क्षपकश्रेणीनाम् । सागराणीति सागरोपमाणि । संख्येयान्यन्तरं भवन्ति । एतदुक्तं भवति यावति कर्मणि क्षीणे देशविरतिरवाप्यते तात्रतः पुनरपि संख्येयेषु सागरोपमेष्वपगतेषु चारित्रं सर्वविरतिरूपमवाप्यते । एवं श्रेणिद्वये भावनीयमिति ॥ ३९०॥ एवं अपरिवडिए संमत्ते देव मणुयजंमेसु । अन्नयर सेदिवज्जं एगभवेणं च सव्वाई | | ३९१ ॥ आगे बोधिके फलको दिखलाते हैं इस प्रकार अप्रतिपतित - निरन्तर अवस्थित रहनेवाले - गुणोंके प्रभावसे, बन्धके उत्तरोत्तर ह्रास ( हानि ) से तथा पूर्वबद्ध कर्मके क्षयसे—संबर और निर्जरासे - - अविनश्वर सुख से युक्त मोक्ष होता है || ३८२ ॥ इस अभिप्रायको आगे अन्य गाथा सूत्रके द्वारा पुष्ट किया जाता है - सम्यक्त्व प्राप्त हो जानेपर पल्योपमपृथक्त्व से श्रावक हो जाता है, तत्पश्चात् चारित्रके उपशम व क्षयके संख्यात सागर होते हैं - संख्यात सागरोपमोंमें चारित्रका उपशम अथवा क्षय होता है । विवेचन – इसका अभिप्राय यह है कि जब जीवके संसार परिभ्रमणका काल उपाधपुद्गल परावर्त मात्र शेष रह जाता है तब वह सम्यक्त्व ग्रहणके योग्य होता है, इससे अधिक समय शेष रहनेपर जीव उस सम्यक्त्वके ग्रहण योग्य नहीं होता है। उसके योग्य हो जानेपर जीव जब • कर्मों की स्थितिको उत्तरोत्तर होन करते हुए उसे अन्तःकोड़ा - कोड़ी प्रमाण करके उसे भी पल्योपके असंख्यातवें भागसे होन कर देता है तब वह सघन राग-द्वेषस्वरूप ग्रन्थिको भेदकर उस सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । इस सम्यक्त्व के प्राप्त हो जानेपर वह उक्त कर्मस्थितिके पल्लोपमपृथक्त्व से - दो पल्योपमोंसे लेकर नौ पल्योपमोंसे - हीन हो जानेपर श्रावक होता है । पश्चात् उक्त कर्मस्थिति संख्यात सागरोपमोंसे हीन हो जानेपर उपशमश्रेणिपर आरूढ होकर औपशमिक चारित्रको प्राप्त करता है । फिर संख्यात सागरोपमोंसे होन उक्त कर्मस्थितिकें हो जानेपर वह क्षपक श्रेणिपर आरूढ होकर क्षायिक चारित्रको प्राप्त करता है || ३२०|| सम्यक्त्वके अवस्थित रहनेपर क्या-क्या प्राप्त हो सकता है, इसे आगे अभिव्यक्त करते हैं-
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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