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________________ २२६ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३८६ - चक्रवर्ती स्याम्, वासुदेवो महामण्डलिकः सुभगो रूपवानित्यादि । एतद्वर्जयेद्भावयेच्चाशुभं जन्मपरिणामादिरूपं संसारपरिणाममिति ५॥३८५॥ तथा जिणभासियधम्मगुणे अव्वाबोहं च तत्फलं परमं । एवं उ भावणाओ जायइ पिच्चा' वि बोहि त्ति ॥३८६॥ जिनभाषितधर्मगुणानिति क्षान्त्यादिगुणान् भावयेदव्याबाधं च मोक्षसुखं च तत्फलं क्षान्त्यादिकायं परमं प्रधानं भावयेत् एवनेव भौवनातः चेतोभ्यासातिशयेन जायते प्रेत्यापि जन्मान्तरेऽपि बोधिधर्मप्राप्तिरिति ॥३८६॥ कुसुमेहि वासियाणं तिलाण तिल्लं पि जायइ सुयंधं । एतोत्रमा हु बोही पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥३८७॥ कुसुमैर्मालतीकुसुमादिभिर्वासितानां भावितानां तिलानां तैलमपि जायते सुगन्धि तद्गन्धवदित्यर्थः । एउपमैव बोधिरिति-अनेनोक्तप्रकारेणोपमा यस्याः सा तथा प्रज्ञप्ता वीतरागैरर्हद्भिः रिति ॥३८७॥ कुसुमसमा अब्भासा जिणधम्मस्सेह हुति नायव्वा । तिलतुल्ला पुण जीवा तिल्लसमो पिच्च तब्भावो ॥३८८।। कूसुमसमाः कुसुमतुल्या अभ्यासा जिनधर्मस्य क्षान्त्यादेरिह जन्मनि भवन्ति ज्ञातव्याः तिलतुल्याः पुनर्जीवाः, भाव्यमानत्वात् । तैलसमः प्रेत्य तद्भावो जन्मान्तरे बोषिभाव इति ॥३८॥ पूजाके द्वारा आदर व्यक्त करता है, और न प्रशंसा करता है, तब मनमें जो यह विचार उत्पन्न होता है कि 'मैं अभागा यदि शीघ्र मर जाऊं तो अच्छा है' इसका नाम मरणाशंसा है । (५) पर भवमें मैं चक्रवर्ती, वासुदेव, महामाण्डलिक और सुन्दर होऊँ, इत्यादि प्रकारका जो विचार किया जाता है, इसे भोगाशंसा प्रयोग कहते हैं। ये संलेखनाको मलिन करनेवाले उसके ये पांच अतिचार हैं, उनका सदा परित्याग करना चाहिए ।।३८५॥ आगे जिनोपदिष्ट धर्मके गुणोंके चिन्तनसे क्या लाभ होता है, इसे दिखलाते हैं जिन भगवान्के द्वारा प्ररूपित धर्मके गुणों और उसके फलस्वरूप बाधारहित उत्कृष्ट मोक्षसुखका चिन्तन करना चाहिए, इस प्रकारको भावनासे अगले भवमें बोधि-रत्नत्रय स्वरूप धर्मका लाभ होता है ॥३८६।। आगे इसके लिए तिलतेलकी उपमा दी जाती है सुगन्धित मालती आदिके फूलोंसे सुवासित तिलोंका तेल भी सुगन्धित होता है, वीतराग भगवान्के उक्त बोधिको इस उपमासे युक्त कहा गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सुगन्धित फूलोंसे सुसंस्कृत तिलके दानोंका तेल भी सुगन्धित हुआ करता है उसी प्रकार रत्नत्रय स्वरूप धर्मके चिन्तनसे-इस भवमें आत्माको उससे सुसंस्कृत करनेसे--पर भवमें भी उस रत्नत्रय स्वरूप धर्म या बोधिका लाभ होता है ।।३८७|| आगे इस उपमाको उपमेयसे योजित किया जाता है उपर्युक्त उपमामें इस जन्ममें किये गये जिनधर्मके अभ्यासको फूलोंके समान, जीवोंको तिलोंके समान और परलोकमें उस बोधिके लाभको तेलके समान जानना चाहिए ॥३८८।। १. अ जायए पच्चा। २. अ भावनातो भ्या। ३. अ तेल्लसमो पेच्च ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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