SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३५० - निगमयन्नाह सुत्त भणिएण विहिणा गिहिणा निव्वाणमिच्छमाणेण । लोगुत्तमाण पूया णिच्चंचिय होइ कायव्वा ॥३५०॥ सूत्रणितेनागमोक्तेन विधिना यतनालक्षणेन । गृहिणा श्रावकेन । निर्वाणमिच्छता मोक्षमभिलषता। लोकोत्तमानामहदादीनाम् । पूजा अभ्यर्थनादिरूपा। नित्यमेव भवति कर्तव्या, ततश्च न युक्तः प्रतिषेध इति ॥३५०॥ अवसितमानुषङ्गिकम्, सांप्रतं यदुक्तं साधुसकाशे कुर्यात्प्रत्याख्यानं यथागृहीतमित्यत्र तत्करणे गुणमाह गुरुसक्खिओ उ धम्मो संपुन्नविही कयाइ य विसेसो । तित्थयराणं य आणा साहुसमीवंमि वोसिरउ ॥३५१।। गुरुसाक्षिक एव धर्म इत्यतः स्वयं गृहीतमपि तत्सकाशे ग्राह्यमिति, तथा संपूर्णविधि. रित्थमेव भवतीत्यभिप्रायः। कदाचिच्च विशेषः प्रागेप्रत्याख्यातमपि किंचित्साधुसकाशे संवेगे प्रत्याख्यातीति । तीर्थकराणां चाज्ञा संपादिता भवतीत्येते गुणाः साधुसमीपे व्युत्सृजतः प्रत्याख्यानं कुर्वत इति ॥३५॥ सामाचारीशेषमाह- ... सुणिऊण तओ धम्म अहाविहारं च पुच्छिउमिसीणं । काऊण य करणिज्जं भावम्मि तहा ससत्तीए ॥३५२।। श्रुत्वा ततो धर्म क्षान्त्यादिलक्षणम्, साधुसकाशे इति गम्यते। यथाविहारं च तथाविध. चेष्टारूपम् । पृष्ट्वा ऋषीणां संबन्धिनम् । कृत्वा च करणीयं ऋषीणामेव संबन्धि। भाव इत्यस्तितायां करणीयस्थे। स्वशक्त्या स्वविभवाद्यौचित्येनेति ॥३५२॥ आगे इसका उपसंहार करते हुए उस पूजाको अवश्यकरणीयताको प्रगट करते हैं जो गृहस्थ निर्वाणकी इच्छा करता है उसे आगमोक्त विधिके अनुसार निरन्तर लोकोत्तमों की-अरहंत, सिद्ध एवं साधु आदि पूज्य महात्माओं की पूजा करना ही चाहिए ॥३५०॥ अब पूर्वमें जो यह कहा था कि साधुके समीपमें प्रत्याख्यान करना चाहिए, उससे होनेवाले लाभको दिखलाते हैं धर्म गुरुको साक्षीमें ही होता है, विधिकी परिपूर्णता तभी होतो है, कदाचित् गुरुके समक्षमें प्रत्याख्यानके ग्रहणसे उसमें विशेषता भी सम्भव है-उससे धर्मानुराग विशेष हो सकता है, तथा साधुके समीपमें प्रत्याख्यानके तीर्थंकरोंकी आज्ञाका परिपालन भी होता है। इस प्रकार स्वयं ग्रहण करनेपर भी गुरुकी साक्षीमें उस प्रत्याख्यानके ग्रहण करने में अनेक लाभ हैं ॥३५१॥ आगे श्रावकको विशेष सामाचारीका निरूपण करते हुए साधुके समीपमें धर्मको सुनकर और क्या करना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हैं तत्पश्चात् धर्मको सुनकर व प्रवृत्तिके अनुसार ऋषियोंसे पूछकर उनके करणीय कार्यको अपनी शक्तिके अनुसार भावपूर्वक करना चाहिए ।।३५२॥ १. अतित्थगराण । २. भ 'प्रागप्रत्या' इत्यतोऽग्रेऽग्रिम 'प्रत्या-' पर्यन्तपाठः स्खलितोऽस्ति । ३.भ संबंधे भावमित्यस्थितायां करणीयसा ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy