SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ३४९] श्रावकस्य दैनिककृत्यम् २१३ यदुक्तं न च पूज्यानामुपकारिणीत्येतत्परिजिहीर्षयाहे उवगाराभावंमि वि पुज्जाणं पूयगस्स उवगारो। मंताइसरण-जलणाइसेवणे जह तहेहं पि ॥३४८॥ उक्तन्यायादुपकाराभावेऽपि पूज्यानामहंदादीनाम् । पूजकस्य पूजाकर्तुरुपकारः। दृष्टान्तमाह-मन्त्रादिस्मरण-ज्वलनादिसेवने यथेति । तथाहि-मन्त्रे स्मर्यमाणे न कश्चित्तस्योपकारोऽय च स्मर्तुभंवत्येवं ज्वलने सेव्यमाने न कश्चित्तस्योपकारोऽथ च तत्सेवकस्य भवति, शीतापनोदादिदर्शनात् । आदिशब्दाच्चिन्तामण्यादिपरिग्रहः । तथेहापोति यद्यप्यहंदादीनां नोपकारः तथापि पूजकस्य शुभाध्यवसायादिभवति, तथोपलब्धेरिति ॥३४८॥ किं च देहाइनिमित्तं पि हु जे कायवहंमि तह पयद॒ति । जिणपूयाकायवहंमि तेसि पडिसेहणं भोहो ।।३४९॥ देहादिनिमित्तमप्यसारशरीरहेतोरपीत्यर्थः। ये कायवधे पृथिव्याधुपमर्दै। तथा प्रवर्तते, तथेति झटिति कृत्वा। जिनपूजाकायवधे तेषां प्रतिषेधनं मोहो अज्ञानम्, न हि ततो भगवत्पूजा न शोभनेति ॥३४९॥ जितने समय वे उक्त पूजा आदि शुभ कार्यों में संलग्न रहते हैं उतने समय वे अन्य आरम्भ कार्योंसे विरत रहते हैं । इस प्रकार पूजा करते हुए उनके परिणामोंमें जो निर्मलता होती है उससे होनेवाला पुण्यका बन्ध उस जीववध जनित स्वल्प पापको अपेक्षा अधिक होता है । इसलिए पूज्योंकी पूजा करना हो चाहिए ।।३४७॥ पूजासे पूज्योंका कुछ उपकार भी नहीं होता जो शंकाकारने कहा था, उसका भी आगे समाधान किया जाता है। __ पूज्य अरहंत आदिकोंका कुछ उपकार न होनेपर भी उस पूजासे पूजकका तो उपकार होता ही है। जिस प्रकार मन्त्र आदिके स्मरण और अग्नि आदिके सेवनसे यद्यपि उस मन्त्र और अग्नि आदिका कुछ उपकार नहीं होता है फिर भी मन्त्रका स्मरण करनेवालेको विषादिकी वेदनाके निराकरण और अग्निके सेवनसे सेवकको शीतताके अपहरण रूप फल प्राप्त होता ही है। इसी प्रकार अरहंत आदिकी पूजासे यद्यपि उनका कुछ उपकार नहीं होता है फिर भी उनके आश्रयसे पूजकको अपने परिणामोंकी निर्मलता रूप फल प्राप्त होता ही है। इस प्रकार पूजाको सार्थकता ही अधिक है ॥३४८। इसके अतिरिक्त जो अपने शरीर आदिके निमित्त भी प्राणिवधमें उस प्रकारसे प्रवृत्त होते हैं उनका जिन पूजाके आश्रयसे होनेवाले स्वल्प प्राणिवधके कारण उस पूजाका प्रतिषेध करना मोह ही है-वह उनकी अज्ञानताका ही सूचक है। अभिप्राय यह है कि जो गृहस्थ अपने शरीरके निमित्त भीउसके संस्कारके लिए-पथिवोकायिकादि जीवोंको पीडा पहुँचाया करता है वह जिनपजाके निमित्त से होनेवाले थोड़ेसे प्राणिवधसे उस पूजाका-जो इह लोक व परलोक दोनोंके लिए हितकर हैनिषेध करे, इसे उसका अविवेक ही कहा जायेगा ।।३४९|| १. भ परिजिहीर्षु राह । २. व शरीरार्थहतो ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy