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________________ २०४ श्रावकप्रज्ञप्तिः [३३१ - लद्धफलमाणमेयं भंगाउ भवंति अउणपन्नासं। तीयाणागयसंपयगुणियं कालेण होइ इमं ।। सीयालं भंगसयं कह कालतिएण होइ गुणणाउ । तीयस्स पडिक्कमणं पच्चुप्पन्नस्स संवरणं ।। पच्चक्खाणं व तहा होइ य एस्सस्स एस गणणाओ। कालतिएण य भणियं जिणगणहरवायगेहिं च ॥ इति ॥३३०॥ उक्तभङ्गकानामाद्यभङ्गस्वरूपाभिधित्सयाह न करइ न करावेइ य करंतमन्नं पि नाणुजाणेइ । मणवयकायेणिक्को एवं सेसा वि जाणिज्जा ॥३३१।। न करोति स्वयं न कारयत्यन्यैः कुर्वन्तमन्यमपि स्वनिमित्तं स्वयमेव नानुजानाति । कथम् ? मनोवाक्कायैर्मनसा वाचा कायेन चेत्येवमेको विकल्पः। एवं शेषानपि द्वयादीन् जानीयात् यथोक्तान प्रागिति ॥३३२।। अत्राह न करेईच्चाइतियं गिहिणो कह होइ देसविरयस्स । भन्नइ विसयस्स बहिं पडिसेहो अणुमईए वि ॥३३२॥ न करोतीत्यादित्रिकं अनन्तरोक्तम् । गृहिणः श्रावकस्य । कथं भवति देशविरतस्य विरताविरतस्य, सावद्ययोगेष्वनुमतेरव्यवच्छिन्नत्वात् । नैव भवतीत्यभिप्रायः। एवं चोदकाभिकिया गया है, कराया गया है या अनुमोदित हुआ है उसका प्रतिक्रमण किया जाता है; वर्तमान में उसे रोका जाता है और भविष्य में सम्भव उसका प्रत्याख्यान किया जाता है। इसी कारण-तीन कालसे सम्बद्ध होनेके कारण-उसे उक्त प्रकार तीन कालोंसे गुणित किया गया है। यह प्रत्याख्यानविषयक व्याख्यान वीतराग जिन, गणधर और वाचक (द्वादशांगका वेत्ता) इनकी परम्परासे समागत है ऐसा निश्चय करना चाहिए ॥३३०॥ आगे उपर्युक्त भंगोंमें-से प्रथम भंगका निर्देश स्वयं ग्रन्थकारके द्वारा किया जाता है मन, वचन और कायसे न स्वयं करता है, न अन्यसे कराता है और न करते हुए अन्यका अनुमोदन भी करता है। इस प्रकार उक्त एक सौ सैंतालोस भंगोंमें यह प्रथम है। इसी प्रकार शेष भंगोंको भी जानना चाहिए ।।३३१॥ अब यहां शंकाकारके द्वारा उठायी गयी शंकाको प्रकट करके उसका समाधान किया जाता है यहां शंकाकार पूछता है कि देशविरत श्रावकके 'न स्वयं करता है' इत्यादि तीन कैसे सम्भव हैं । इसके समाधान में कहा गया है कि विषयके बाहर उसके अनुमतिका भी प्रतिषेध सम्भव है। विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय है कि आरम्भ कार्यों में निरत गृहस्थ स्थूल रूपमें प्राणातिपातादिका परित्याग करता है, अतः उसके करने व करानेका प्रतिषेध तो सम्भव है, किन्तु उसके लिए अनुमतिका निषेध करना शक्य नहीं है। इसके उत्तरमें यहां यह कहा गया है कि
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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