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________________ २०० श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३२८ - परव्यपदेश इति - आत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परस्तद्वयपदेश इति समासः, साधोः पौषattaraपारणकाले भिक्षायै समुपस्थितस्य प्रकटमन्नादि पश्यतः श्रावकोऽभिधत्ते परकीयमिदमिति नात्मीयमतो न ददामि किचिद्याचितो वाभिधत्ते विद्यमान एवामुकस्येदमस्ति तत्र गत्वा मार्गय तधूयमिति । ४ । मात्सर्यमिति--याचितः कुप्यते, सदपि न ददाति, परोन्नतिवैमनस्यं च मात्सर्यमिति । तेन तावद्वमकेण याचितेन दत्तम्, किमहं ततोऽपि न्यूनः इति मात्सर्याद्ददाति कषायकलुषितेन वा चित्तेन ददतो मात्सर्यमिति (५) ॥ ३२७॥ उक्तं च सातिचारं चतुर्थं शिक्षापदव्रतम्, अधुनैषामंणुव्रतादीनां यानि यावत्कथिकानि यानि चेत्वराणि तदेतदाह इत्थ उ समणोवासजधम्मे अणुव्वय-गुणव्वयाई च । आवकहियाइ सिक्खावयाई पुण इत्तराई ति || ३२८|| अत्र पुनः श्रमणोपासकधर्मे । तुशब्दः पुनः शब्दार्थः, स चावधारणे अत्रैव न शाक्याद्युपासकधर्मे, तत्र सम्यक्त्वाभावेन अणुव्रताद्यभावात् । उपास्ते इत्युपासकः सेवकः इत्यर्थः । श्रमणानामुपासकस्तस्य धर्म इति समासः । अणुव्रतानि गुणव्रतानि चेति पञ्चाणुव्रतानि प्रतिपादितस्वरूपाणि सचित्तविधान नामका यह दूसरा अतिचार होता है । इसे भी यदि न देनेके विचारसे वैसा किया जाता है तभी अतिचार समझना चाहिए। (३) साधुओंकी भिक्षाके योग्य जो समय है यदि उसे बिताकर भोजन करता है तो यह प्रकृत व्रतका कालातिक्रम नामका तीसरा अतिचार होता है । कारण यह कि उस समय साधुका लाभ होनेपर भी उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं हैं, क्योंकि गोचरीके कालके निकल जानेपर साधु ग्रहण नहीं किया करते हैं । समयपर देनेपर ही उसका मूल्य होता है- - वह तभी श्रेयस्कर होता है । असमय में निर्मित भोजनको ग्रहण करनेवाले साधु उपलब्ध ही नहीं होते । ( ४ ) अपने से भिन्न जो अन्य है उसका व्यपदेश करनेपर - उसका नाम बतलाने पर --- परव्यपदेश नामक चौथा अतिचार होता है । इसका अभिप्राय यह है कि साधु जब पौषधोपवासकी पारणाके समयमें भोजन के लिए उपस्थित होता है और प्रत्यक्षमें अन्न आदिको रखा हुआ देखता है तब यदि श्रावक यह कहता है कि यह दूसरेका है मेरा स्वयंका नहीं है, इसलिए नहीं देता हूँ । अथवा कुछ याचना करनेपर देय वस्तुके विद्यमान होते हुए भी यदि 'यह अमुक व्यक्तिकी है, वहाँ जाकर आप माँग लें' ऐसा कहता है तो उसका प्रकृत व्रत परव्यपदेश नामक इस चौथे अतिचारसे मलिन होता है । (५) मांगनेवर यदि श्रावक क्रोधित होता है, वस्तुके होते हुए भी नहीं देता है, अथवा 'अमुक दरिद्र व्यक्तिने तो याचना करनेपर दिया है, क्या मैं उससे भी होन हूँ' इस प्रकार दूसरेकी उन्नतिको देखकर विमनस्क होते हुए मत्सरतासे या कषायसे कलुषितचित्त होकर देता है तो उसका व्रत मात्सर्य नामक इस पांचवें अतिचारसे दूषित होता है । इसलिए पौषधोपवासव्रती श्रावकको इन पांचों अतिचारोंका परित्याग करना चाहिए ॥ ३२७ । अब उक्त अणुव्रतादिकों में जो यावत्कथिक हैं और जो अल्पकालिक हैं उनका निर्देश किया जाता है - जीवन पूर्वोक्त श्रमणोपासक ( श्रावक ) धर्म में अणुव्रत और गुणव्रत तो यावत्कथिक - पर्यन्त पालन करने योग्य - हैं, पर शिक्षाव्रत इत्वर ( अल्पकालिक ) हैं । विवेचन - श्रमण नाम साधुका है, उन श्रमणोंकी जो उपासना या सेवा किया करता है वह श्रमणोपासक कहलाता है । दूसरे शब्द से उसे श्रावक कहा जाता है । ( इसका लक्षण पीछे
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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