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________________ - ३२७] चतुर्थशिक्षापदप्ररूपणा १९९ किर साहूण ण दिन्नं तं सावगेण न भोत्तव्वं । जइ पुण साह णत्थि ताहे देसकालवेलाए दिसालोओ कायव्यो । विसुद्धभावेग चितियव्वं साहुणो जइ होंता नाम नित्थारिओ होतो त्ति विभासा ॥३२६॥ इदमपि शिक्षापदव्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमिति एतदाह सचित्तनिक्खिवणयं वज्जे सञ्चित्तपिहणयं चेव । कालाइक्कमदाणं परववएसं च मच्छरियं५ ॥३२७।। विवर्जयेत् --तत्र सचित्तनिक्षेपणं संचित्तेषु व्रोह्यादिषु निक्षेपणमन्नादेरदेयबुद्धया मातृस्थानतः।१। एवं सचित्तपिधानं सचित्तेन फलादिना पिधानं स्थगनमिति समासः, भावार्थः प्राग्वत् । २। कालातिक्रम इति । कालस्यातिक्रमः कालातिक्रमः उचितो यो भिक्षाकालः साधूनां तमति कम्य उल्लंघ्य भुंक्त। तदा च किं तेन लब्धेनापि, कालातिक्रांतत्वात्तस्य । उक्तं च काले दिन्नस्स पहेणयस्स अग्यो ण तीरए काउं । तस्सेदकाले परिणामियस्स मिहंत या नस्थि । ३ । निमन्त्रित करता है तो नमस्कार सहित होनेपर जावे, अन्यथा न जावे। तब उसे ठप्प कर दे। यदि अतिशय लगाव या प्रेरणा हो तो ग्रहण करे व संविभाग करावे। यदि उद्घाटित पौरुषीमें पारणा करता है तो पारणा व्यापन अथवा दुसरा कोई सामान्यसे ज्ञात कहनेपर उसे दे। पश्चात उस श्रावकके साथ जाता है, संघाटक जाता है, एक नहीं पठाने के लिए प्रवृत्त होता है। साधु आगे और श्रावक पीछे चलकर घर ले जाता है और आसनपर बैठने के लिए उपनिमन्त्रित करता है। वह यदि आसनपर विराजमान हो जाता है तो दण्डवत् नमस्कार करता है, और यदि आसनपर नहीं बैठता है तो भी विनत रहता है। उस समय वह स्वयं ही भक्त-पान देता है, अथवा पात्रको धरता है और पत्नो उसे देतो है, अथवा खड़ा रहे । जैसा कुछ दिया जा रहा है, साधु भी सावशेष (परिमित मात्रामें ) द्रव्यको ग्रहण करता है। इस प्रकार पश्चात्कर्मके परिहारार्थ देकर व वन्दना करके साधुको विदा करता है। उसे विदा करके पीछे जाता है। तत्पश्चात् श्रावक स्वयं भोजन करता है। जो भोज्य वस्तु साधुको नहीं दी गयी है उसे श्रावकको नहीं खाना चाहिए। यदि साधुका लाभ नहीं होता तो देश व काल-वेलाके अनुसार दिशावलोकन करे-साधुके आनेकी प्रतीक्षा करे और विशुद्ध भावसे यह विचार करे कि यदि साधु होते तो मेरा निस्तार ( उद्धार ) होता। यह साधुके लिए भोजन देने की विधि है ॥३२५-३२६॥ इस व्रतका परिपालन भी निरतिचार ही करना चाहिए, इस उद्देश्यसे आगे उसके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है ___ सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान, कालातिक्रमदान, परव्यपदेश और मात्सर्य ये इस व्रतके पांच अतिचार हैं । व्रती श्रावकको उनका परित्याग करना चाहिए। . विवेचन-(१) यदि न देनेके विचारसे अन्न आदिको जहाँ रखा हुआ है वहांसे हटाकर सचित्त ब्रोही ( धान्य ) आदिमें स्थापित करता है तो यह सचित्तनिक्षेप नामका उस व्रतका प्रथम अतिचार होता है। यह स्मरणीय है कि सचित्तपर रखी हुई किसी भोज्य वस्तुको नहीं ग्रहण किया करते हैं। (२) देय भोज्य वस्तुको सचित्त फल या पत्ते आदिसे ढककर रखनेपर १. भुजइ किं च किर । २. अ जइ हंता णाम णित्यारो होति त्ति भास । ३. अ इहमपि । ४. अ सच्चित्ते णिक्खवणं । ५. अ कालाइक्कमपरववदेसमच्छरियं चेव सचित्तपक्षेपणं । ६. अ 'तत्र' नास्ति । ७. अ सचित्तानिक्षेपण । ८. अस्स अप्पाण तीए । ९. अ तस्सेवाकालपरि ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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