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________________ १९० श्रावकप्रज्ञप्तिः दिसिय हियस दिसापरिमाणस्सेह पइदिणं जं तु । परिमाणकरण मेयं बी सिक्खावयं भणियं ॥ ३१८ ॥ [ ३१८ - दिग्व्रतं प्राङ्गनिरूपितस्वरूपम्, तद्गृहीतस्य । दिक्परिमाणस्य योजनशतादेर्दीर्घकालिकस्य । लोके । प्रतिदिनं यदेव परिमाणकरणमेतावदेव गन्तव्यम्, न परत इति । एतद्वितीयं शिक्षापदं भणितमिह प्रवचने इति । प्रतिदिवसग्रहणं प्रतिप्रहराद्युपलक्षणम् - प्रतिप्रहरं प्रतिघटिकमिति ॥ ३१८ ॥ इह देसावगासियं नाम सप्पविसनाय ओऽपमायाओं 1 आससुद्ध हियं पालेयव्वं पयत्तेणं ॥ ३१९ ॥ दिव्रत गृहीत दिक्परिमाणैकदेशो देशस्तस्मिन्नवकाशो गमनादिचेष्टास्थानम् तेन निर्वृत्तं देशावका शिकमिति नामेति संज्ञा । एतच्च सर्पविषज्ञातात् सर्पोदाहरणेन विषोदाहरणेन च । जहा सप्पस पुव्वं बारस जोययाणि विसओ आसीदिट्ठीए, पच्छा विज्जावाइएग ओसारं तेण जो ठविओ । एवं सावगो दिसिव्वयाहिगारे बहुयं अवरज्झियाइओ, पच्छा देसावगासिएणं तं पिओसारइ | अहवा विसदिट्ठतो अगएण एगाए अंगुलीए ठवियं । एवं विभासा । एवमप्रमादात्प्रतिदिनादिपरिमाण करणे अप्रमादस्तथा चाशयशुद्धिः चित्तवैमल्यम् । ततो हितमिदमिति पालयितव्यं प्रयत्नेनेति || ३१९॥ दिव्रत ग्रहण किये गये दिशाओंके प्रमाणको यहां - इस दूसरे शिक्षापद में - प्रतिदिन जो प्रमाण किया जाता है, इसे दूसरा शिक्षापद कहा गया है। विवेचन - दिग्व्रत नामक प्रथम गुणव्रत में जो दिशाओं में जानेका प्रमाण किया जाता है। वह कुछ विस्तृत प्रमाण में और जीवन पर्यन्त के लिए किया जाता है । प्रकृत देशावकाशिक नामके इस दूसरे शिक्षापद व्रतमें प्रतिदिन घड़ी व प्रहर आदि कालके प्रमाणपूर्वक उसमें संक्षेप किया जाता है । इस प्रकार के प्रमाण कर लेनेपर उसके आगे प्रयोजनके होते हुए भी न जानेके कारण वहाँ श्रावक हिंसादिपापोंसे बचता है || ३१८॥ इस देशावकाशिक व्रतका किस प्रकारसे पालन करना चाहिए, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है सर्पके और विषके उदाहरण के अनुसार प्रमादसे रहित होकर अन्तःकरणकी शुद्धिपूर्वक इस हितकर देशावकाशिक नामक व्रतका प्रयत्नके साथ पालन करना चाहिए । विवेचन - अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सर्पका दृष्टिविष जो पूर्व में बारह योजन प्रमाण था पीछे उसे विद्यावादी ( मान्त्रिक) के द्वारा क्रमसे उतारते हुए एक योजन में स्थापित कर दिया जाता है। इसी प्रकार श्रावक दिग्व्रत में गृहीत विशाल देश में बहुत अपराध आदिको कर सकता था । उसे इस देशावकाशिकव्रतमें और भी सीमित कर देनेके कारण अधिक अपराधसे बच जाता है । अथवा दूसरा उदाहरण विषका दिया जाता है-जिस प्रकार विषैले किसी सर्प आदिके काट लेने पर उसका विष समस्त शरीर में फैल जाता है, फिर भी मान्त्रिक अपनी मन्त्रशक्तिके द्वारा उसे क्रमशः उतारते हुए केवल अंगुलिमें स्थापित कर देता है, उसी प्रकार देशावकाशिकव्रती दिग्व्रत में स्वीकृत विशाल देशको कालप्रमाणके आश्रयसे प्रतिदिन संक्षिप्त किया करता है । ऐसा १. सिक्षावणियं । २. अ विसणाउ पमाणाउ । ३. अ 'विषोदाहरणेन' नास्ति । ४. विद्यारण उसारत्तेण ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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