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________________ - २९४ ] प्रथमशिक्षापदे साधु-श्रावकयोर्भेदप्रदर्शनम् १७९ अत्राह कयसामइओ सो साहुरेव ता इत्तरं न कि सव्वं । वज्जेइ य सावज्जं तिविहेण वि संभवाभावा ॥२९३॥ कृतसामायिकः प्रतिपन्नसामायिकः सन्नसौ श्रावको वस्तुतः साधुरेव सावद्ययोगनिवृत्तेः। यस्मादेवं तस्मात्, साधुवदेवेत्वरमल्पकालम् । न किं किं न सर्व निरवशेषं । वर्जयति ? परिहरत्येव । सावधं सपापम्, योगमिति गम्यते । त्रिविधेनापि मनसा वाचा कायेन चेति । अत्रोच्यतेसंभवाभावात् श्रावकमधिकृत्य त्रिविधेनापि सर्वसावद्ययोगवर्जनासंभवादिति ॥२९३॥ असंभवमेवाह... आरंभाणुमईओ कणगाइसु अग्गहाणिवित्तीओ। भुज्जो परिभोगाओ भेओ एसिं जओ भणिओ ॥२९४।। आरम्भानुमतेः श्रावकस्यारम्भेष्वनुमतिरव्यवच्छिन्नैव, 'तथा तेषां प्रवर्तितत्वात् । कनकादिषु द्रव्यजातेषु । आग्रहानिवृत्तेरीत्मीयाभिमानानिवृत्तेरनिवृत्तिश्च भूयः परिभोगादन्यथा सामायिकोतरकालमपि तदपरिभोगप्रसङ्गः, सर्वथा त्यक्तत्वात् । भेदश्चैतयोः साधु-श्रावकयोः। यतो भणित उक्तः परममुनिभिरिति ॥२९४॥ भेदाभिधित्सयाहआगे यहाँ प्रसंगसे सम्बद्ध शंकाको उठाकर उसका समाधान किया जाता है जो सामायिकको स्वीकार करता है इसलिए वह साधु हो है कारण यह कि वह क्या कुछ कालके लिए समस्त सावद्य योगको तीन प्रकारसे मन, वचन व कायसे-नहीं छोड़ देता हैअवश्य छोड़ देता है। इस शंकाके उत्तरमे कहा गया है कि श्रावकको तीनों प्रकारसे समस्त सावध योगका परित्याग करना सम्भव नहीं है। विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय यह है कि श्रावक जब सामायिक करता है तब वह नियत काल तक चूंकि समस्त सावद्य योगका मन, वचन व काय इन तीनों योगासे परित्याग करता है अतः वह साधु ही है। इस शंकाक समाधानमें यह कहा गया है कि श्रावकके लिए तीनों योगोंसे समस्त सावद्य योगका परित्याग करना सम्भव नहीं है, इसलिए उस उतने समयके लिए भी यथार्थमें साधु नहीं कहा जा सकता ॥२९३।। __ आगे उसके लिए समस्त सावध योगका त्याग करना सम्भव क्यों नहीं है, इसे हो स्पष्ट किया जाता है- . श्रावककी आरम्भकार्यमें अनुमति रहती ही है, कारण यह है कि 'ये सुवर्णादि द्रव्य मेरे हैं! इस प्रकारसे उन द्रव्योंके विषयमें उसका आग्रह ममत्वबुद्धि नहीं छूटता है-वह बराबर बना हा रहता है। इसका भी कारण यह है कि वह सामायिकके पश्चात् उनका पुनः उपभाग करता हो है। यदि ऐसा न होता तो वह सामायिक पश्चात् भी उनका उपभोग नहीं करता, पर पश्चात् उनका उपभोग करता तो है हो, क्योंकि उन्हें उसने सर्वदाके लिए नहीं छोड़ा है। यही कारण है जो साधु और श्रावक इन दोनों में भेद बतलाया गया है ॥२९४।। आगे उनमें जिन अधिकारोंके आश्रयसे भेद बतलाया है उनका निर्देश किया जाता है १. अषु जातेषु ग्रहानिवृत्ते । २. अ यत उक्तः ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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