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________________ १७८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२९२सिंघाणए न विगिचइ, विगिचंतो वा पडिलेहेइ पमज्जिय। जत्थ चिट्टइ तत्थ तिगुत्तिणिरोह करेइ। एयाए विहीए गंता तिविहेण नमिऊण साहुणो पच्छा सामाइयं करेइ, करेमि भंते सामाइयं, सावज्जं जोगं पच्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव साहुं पज्जुवासामित्ति काऊण पच्छा इरियावहियं पडिक्कमइ । पच्छा आलोएत्ता वंदइ आयरियाइ जहारायणियाए। पुणो वि गुरुं वंदित्ता पडिलेहिता निविट्ठो पुच्छइ पढइ वा। एवं चेइएसु वि। जया सगिहे पोसहसालाए वा तत्थ नवरि गपणं णस्थि। जो इढिपत्तो सो सविड्ढोए एइ। तेण जणस्स आढा होइ आढियाय साहुणो सुपुरिसपरिग्गहेणं । जइ सो कयसामाइओ एइ ताहे आस-हत्थिमाइजणेण य अधिगरणं वढइ ताहे ण करेइ। कयसामाइएण य पाएहिं आगंतव्वं तेण ण करेइ आगओ साहुनमीवे करेइ। जइ सो सावगो तो ण कोइ उट्टइ। अह अहामद्दओ जइपूया कया होउत्ति भणंति ताहे पृवरइयं आसणं कोरइ आयरिया उढिया य अच्छंति तत्थ उट्टितमणुट्टिते दोसा विभासियव्वा। पच्छा सो इढिपत्तो' सामाइयं करेइ। अणेण विहिणा करेमि भंते सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव णियमं पज्जुवासामित्ति । एवं सामाइयं काउं पडिक्कतो वंदित्ता पूच्छइ सो य किर सामाइयं करेंतो मउडं अवणेइ, कुंडलाणि णाममुह पप्फतंबोलं पावारगमाइ वा वोसिरह। एसो विही सामाइयस्स ॥२९२॥ से संरक्षित, साधके समान ईर्यासे उपयक्त-सावधानीसे गमन करता हआ भाषासे सावद्यका परिहार करे व एषणामें काष्ठ अथवा लोष्ठ आदिका प्रतिलेखन व प्रमार्जन करे। इसी प्रकार आदान-निक्षेपणा में श्वेल (कफ) व नामिकामलको न गिगवे, यदि गिराना पड़े तो प्रतिलेखन व प्रमार्जन करके गिरावे । जहाँपर स्थित हो वहां तीन गप्तियोंका निरोध करे। इस विधिसे जाकर तीन प्रकारसे साधुको नमस्कार करे तत्पश्चात् सामायिक करे-जबतक साधुकी उपासना करता 'हे भगवन, मैं सामायिक करता हूँ, दो प्रकारके सावध योगका तीन प्रकारसे प्रत्याख्यान करता ऐसा करके पश्नात् ईर्यापथका प्रतिक्रमण करता है, पश्चात् आलोचना करके ज्येष्ठताके क्रमसे फरसे भी गुरुकी वन्दना करके प्रतिलेखनापूर्वक बैठकर पूछे व पढ़े। इसी प्रकार चैत्यगृहोंमें भी करना चाहिए। विशेषता इतनी है कि अपने घर अथवा प्रौषधशालामें गमनक्रिया नहीं है। यह अनृद्धिप्राप्त श्रावकके लिए सामायिकका विधान है। यदि श्रावक ऋद्धिप्राप्त है तो सब ऋद्धिके साथ वह आता है। इससे वह उत्तम पुरुषके ग्रहणसे आदरका पात्र होता है। यदि वह सामायिकको करके आता है तो घोड़ा और हाथी आदिके परिकरसे अधिकरण ( असंयम) बढ़ता है। इसलिए उस समय सामायिक न करे, प्रायः सामायिक करके ही आवे। इसीलिए नहीं करता है। यदि वह आ करके साधुके समीपमें सामायिकको करता है और यदि श्रावक है तो कोई न उठे। यदि अभद्र है तो यतिपूजा करना चाहिए, ऐसा कहते हैं । तब पूर्वरचित आसन किया जाता है। आचार्य उत्थित ही रहते हैं, वहां उत्थित और अनुत्थितके दोषोंको कहना चाहिए। पश्चात् वह ऋद्धिप्राप्त सामायिकको इस विधिसे करता है-हे भगवन्, मैं सामायिकको करता हूँ, दो प्रकारके सावद्य योगका तीन प्रकारसे तबतक प्रत्याख्यान करता हूँ जबतक कि साधुको उपासना करता हूँ। इस प्रकार सामायिक करके प्रतिक्रमण करता हुआ वन्दना करता है व पूछता है। वह सामायिक करता हुआ मुकुटको दूर कर देता है तथा कुण्डलों, नाममुद्रा, पुष्प, पान और वस्त्र आदिको भी हटा देता है। यह सामायिकको विधि है ।।२९२।। १. असो वठिए ए तेण जणस्स अढा । २. अ जया सो। .. भदोसा भासियव्वा इच्छा सो अढिपत्तो ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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