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________________ -२५४] वधविषयाणामेव वनिवृत्तियुक्ता इत्येतन्निराकरणम् प्रतिष्ठिताः सर्वसत्त्वविषया इति। उपपत्त्यन्तरमाह–अनादिनिधनो यत्संसारो विचित्रश्चातो युज्यते सर्वमेतदिति ॥२५२॥ उपसंहरन्नाह ता बंधमणिच्छंतो कुज्जा सावज्जजोगविनिवित्तिं । अविसयअनिवित्तीए सुहभावा दढयरं स भवे ॥२५३।। यस्मादेवं तस्माद । बन्धमनिच्छन्नात्मनः कर्मणाम् । कुर्यात्सावद्ययोगनिवृत्तिमोघत: सपापव्यापारनिवृत्तिमित्यर्थः। अविषयानिवृत्त्या नारकादिवधाभावेऽपि तदनिवृत्त्या । अशुभभावादविषयेऽपि ववविरतिं न करोतीत्यशुभो भावस्तस्मात् । दृढतरं सुतरां स भवेद्बन्धो भावप्रधानत्वात्तस्येति ॥२५३॥ इत्तो य इमा जुत्ता जोगतिगनिबंधणा पवित्तीओ'। जं ता इमीइ विसओ सव्वु च्चिय होई विन्नेओ ॥२५४॥ इतश्चेयं निवृत्तिर्युक्ता। योगत्रिकनिबन्धना मनोवाक्काययोगपूर्विका प्रवृत्तियद्यस्मादस्या अतिरिक्त उपभोगमें भी वह जीवोंकी विराधना कर सकता है तथा कूटयन्त्र (पशु-पक्षियोंको पकड़नेके लिए मांस आदिसे संलग्न यन्त्रविशेष आदिको प्रतिष्ठित कर प्राणियों को पीड़ित किया जा सकता है। इस कारण सामान्यसे सर्वसावद्यसे की जानेवाली निवृत्ति हो संगत व उपयोगी सिद्ध होती है ॥२५२।। अब इसका उपसंहार किया जाता है इस कारण जो आत्महितैषो बन्धकी इच्छा नहीं करता है उसे सामान्यसे समस्त सावध योगसे निवृत्ति करना चाहिए। कारण यह है कि जो नारक-देवादि वधके विषय नहीं हैं उनके वधविषयक अनिवृत्तिसे होनेवाले अशुभ परिणामसे वह दृढ़तर कर्मबन्ध होनेवाला है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि कुछ नारक व देव आदि निरुपक्रमायुष्क जीव भले ही उस वधके विषय न हों, फिर उनके वधको निवृत्ति न करनेसे परिणामोंमें कलुषता सम्भव है, जो दृढ़ कर्मबन्धको कारण हो सकती है, क्योंकि कर्मबन्धका कारण जीवका परिणाम है जो वध्यअवध्य सभी प्राणीके विषयमें सम्भव है। समस्त प्राणियोंके दधविषयक निवृत्तिको स्वीकार न करना, यह प्राणीको आत्मदुर्बलता ही समझो जायेगी जो अशुभाशयसे भिन्न नहीं हो सकती। सामान्यसे वधका प्रत्याख्यान करने पर जिन प्राणियोंका वध सम्भव नहीं उनके विषय में तो और भी निर्मल परिणाम रह सकते हैं। इसलिए कर्मबन्धके अनिच्छुक भव्य जीवको सामान्यसे हिंसादिरूप समस्त ही सावध परित्याग करना उचित है ॥२५३।। आगे सामान्यसे की जानेवाली वनिवृत्तिका अन्य कारण भी बतलाते हैं चूंकि जोवकी प्रवृत्ति मन, वचन और कायरूप तीनों योगोंके कारणसे हुआ करती है, इसलिए भी सामान्यसे वधकी निवृत्ति करना योग्य है। इस प्रकार जब कि उस अनिवृत्तिका विषय सभी है तब निवृत्तिका विषय भी सब हो समझना चाहिए। विवेचन-अभिप्राय यह है कि जीवकी जो प्राणिवधादिमें प्रवृत्ति होती है वह मन, वचन व काय इन तीनों योगोंके आश्रयसे हुआ करती है। इसलिए जिन नारक आदिका वध कायसे १.भ पवित्तीए।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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