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________________ १४८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ २५१ - र्यापादनपरिणामः । यथा तेषु द्रंग निवासिषु वैरवत इति । तस्य प्रत्याख्यातुस्ततो नास्ति बन्धः इति । तथाहि तेऽपि न यथादर्शनमेव प्राणिनां बन्धादि कुर्वन्ति, किंतु वैरिद्रंगनिवासिनामेव । एवं प्रत्याख्यातुरपि न सर्वेषु वधाभिसंधिरिति तद्विषये बन्धाभाव इति ॥ २५० ॥ एतदाशङ्क्याह अत्थि च्चिय अभिसंधी अविसेसपवित्तिओ जहा तेसु । अपवित्तीय विणिवित्तोजो उं तेसिं व दोसो उ ॥ २५१ ॥ अस्त्येवाभिसंधिरनन्तरो | दतलक्षणः सर्वेषु । कुतोऽविशेष प्रवृत्तितः सामान्येन बधप्रवृत्तेः । यथा तेषु रिपुद्रं निवासिषु वैरवतः । ततश्चाप्रवृतावपि वधे अनिवृत्तिज एव तेषामिव वैरवतां दोष एवमनिवृत्तस्य गर्भार्थो भावित एवेति ॥ २५२ ॥ अदृष्टान्त एवायम्, सर्वसत्वैर्वैरा संभवादिति आशङ्कयाह सव्वेसिं विराहणओ परिभोगाओ य हंत वेराई । सिद्धा अणाइनिहणो जं ससारो विचित्तो य ।। २५२॥ सर्वेषां प्राणिनाम् । विराधनात्तेन तेन प्रकारेण परिभोगाच्च स्रक् चन्दनोप करणत्वेन । हन्त 'बैरादयः सिद्धाः हंत संप्रेषणे स्थानान्तरप्रापणे सति वैरोन्माथकादयः कूटयन्त्रकादयः के मारण-ताड़न आदिका अभिप्राय रखते हैं, न कि विश्वके सभी प्राणियों के विषय में । इसलिए केवल उनके निमित्तसे हो उनमें कर्मका बन्ध सम्भव है, न कि समस्त प्राणियों के निमित्तसे । इसी प्रकार से विशेष रूप में शक्य वधवाले प्राणियोंके वधकी निवृत्तिको स्वीकार करनेवालेका दुष्ट अभिप्राय जब अशक्य वधवाले अन्य समस्त प्राणियोंके विषय में नहीं रहता है तब उनके निमित्तसे उसके कर्मका बन्ध क्यों होगा ? वह नहीं होना चाहिए || २५०|| आगे वादीकी इस शंकाका उत्तर दिया जाता है सामान्यसे सब जीवोंके वधके विषय में निवृत्तिको स्वीकार न करनेवाले मनुष्यका वधविषयक अभिप्राय रहता ही है, क्योंकि वह सामान्यसे प्रवृत्ति करता है। जिस प्रकार कुलवैरवालेका अभिप्राय सामान्यसे उस कुलमें वर्तमान सभी मनुष्योंके वध-बन्धनादि-विषयक रहा करता है। इस प्रकार सबके वधमे प्रवृत्त न होनेपर भी उसके अतिवृत्तिजनित दोष होता ही है || २५१ ॥ कुलवेरका जो दृष्टान्त दिया गया है वह वस्तुतः दृष्टान्त नहीं है क्योंकि कुलवेरवालोंका विश्व के सब प्राणियों से वेर सम्भव नहीं है, वादीकी इस आशंकाको हृदयंगम कर आगे यह कहा जाता है— सभी जीवों की विराधना करनेके कारण तथा माला व चन्दन आदि सबका उपभोग करनेके कारण सबके साथ वैर आदि सिद्ध हैं, क्योंकि संसार अनादि-निधन व विचित्र है । विवेचन-वादीकी उक्त शंकाको हृदयंगम कर यहाँ यह कहा गया है कि संसार चूँकि अनादि व अनन्त है, अतएव वह इस संसार परम्परामें व्यक्ति जब तब जिस किसीके वध-बन्धनादिका विचार कर सकता है । इससे वैर-विरोधादिको असम्भव नहीं कहा जा सकता है । इसके १. अ य विभणिवित्तीजा उ । २. भ हते संप्रक्षणां ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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