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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२०९ एतस्य चोपक्रमस्य यो हेतुर्दण्डादिपीडाकरणेन स वधकेः असौ हन्ता येन कारणेन तन्निवृत्तिः वधनिवृत्तिः एवं वंध्यासुतपिशिताशननिवृत्तितुल्या कथं भवति सविषयत्वाद्वधनिवृत्तेरिति ॥ २०८ ॥ २ १२८ अधुनान्यद्वादस्थानकम् - अन्ने भांति कम्मं जं जेण कथं स भुंजई तयं तु । * चित्तपरिणामरूवं अणेगसहकारि साविक्खं ॥ २०९ ॥ अन्ये भणन्ति - कर्म ज्ञानावरणादि । यद्येन कृतं प्राणिना । स भुङ्क्ते तदेव चित्रपरिणामरूपं कर्माने सहकारिसापेक्षम् अस्मादिदं प्राप्तव्यमित्यादिरूपमिति ॥ २०९ ॥ तक्कय सहकारितं पवज्जमाणस्स को वहो तस्स । तस्सेव तओ दोसो जं तह कम्मं कयमणं ॥ २१०॥ तत्कृत सहकारित्वं व्यापाद्यकृत सहकारित्वम् । प्रपद्यमानस्य को वधस्तस्य व्यापादकस्य । तस्यैव व्यापाद्यस्यासौ दोषो यत्तथा कर्म अस्मान्मया मर्तव्यमिति विपाकरूपम् । कृतमनेन व्यापाद्येनेति ॥ २९० ॥ एतदेव समर्थयति - जइ तेण तहा अकए तं वहइ तओ सतंतभावेण । अन्नं पि किं न एवं वहे अणिवारियप्पसरो ॥ २११ ॥ विवेचन - प्रकृत में वादीने अकालमरणको असम्भव बतलाकर प्राणिवधकी निवृत्तिको वन्ध्यापुत्रके मांसके भक्षणकी निवृत्तिके समान अज्ञानतापूर्णं कहा था (गा. १९२ ) । उसका निराकरण करते हुए यहाँ यह सिद्ध किया गया है कि उपक्रम द्वारा जब आयुका विनाश पूर्वमें भी सम्भव है तब अकालमरणको असम्भव नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार जब अकालमरण प्रमाणसे सिद्ध है तब उस वधको निवृत्ति कराना सर्वथा उचित है— उसे बन्ध्यापुत्रके मांस के भक्षणकी निवृत्तिके समान अज्ञानतापूर्ण नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह निर्विषय नहीं है, यह सिद्ध किया जा चुका है । जो व्यक्ति उस आयुके उपक्रमका कारण होता है-लाठी व छुरी आदि द्वारा प्राणीको पीड़ा पहुँचाता है - वह वधक कहलाता है । उसके इस क्रूरतापूर्ण कृत्य से पापका संचय होता है । इससे उसे प्राणिवधका परित्याग कराना योग्य ही है || २०८ || अब आगे चार ( २०९-२१२ ) गाथाओं में अन्य किन्हीं वादियोंके अभिमतको दिखलाते हैंदूसरे कितने ही वादी यह कहते हैं कि जिस जोवने जिस कर्मको किया है वह नियमसे अनेक प्रकार के परिणामस्वरूप उस कर्मको अनेक सहकारी कारणों की अपेक्षासे भोगता है || २०९ ॥ वध्यमान उस जीवके द्वारा की गयी सहकारिताको प्राप्त होनेवाले वधकके उस वध्यमान जो वधका कौन-सा दोष है ? उसका उसमें कुछ भी दोष नहीं है । वह दोष तो उस वध्यमान प्राणीका ही है, क्योंकि उपने उस प्रकारके - उसके निमित्तसे मारे जानेरूप - कर्मको किया है ॥२१०॥ १. अ बंधक । २. भ तन्निवृत्तिर्वधरेवं । ३. अ जेण सयं पुज्जइ । ४. अकारिवावेक्खं । ५. अ पठति । 1
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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