SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२०८] अकालमरणाभाववादिनामभिमनिरासः १२७ साध्यासाध्ययोरेव स्वरूपमाह सोवक्कममिह सझं इयरमसझं त्ति होइ नायव्वं । सज्झासज्झविभागो एसो नेओ जिणाभिहिओ ॥२०६॥ सोपक्रममिह साध्यम्, 'तथाविधपरिणामजनितत्वात् । इतरन्निरुपामसाध्यमेव भवति ज्ञातव्यम् । साध्यासाध्यविभागः एष ज्ञेयो जिनाभिहितस्तीर्थकरोक्त इति ।।२०६॥ निगमयन्नाह आउस्स उवक्कमणं सिद्धं जिणवयणओ य सद्धेयं'। जं छउमत्थो सम्म नो केवलिए मुणइ भावे ॥२०७।। आयुष उपक्रमणं सिद्धमुत्तन्यायात् । जिनवचनाच्च भवति श्रद्धेयम्। किमित्यत्रोपपत्तिमाह-- यद्यस्माच्छद्मस्थः अग्दिर्शी । सम्यगशेषधर्मापेक्षया । न केवलज्ञानगम्यान् मुणति भावान् जानालि पदार्थानिति ॥२०७॥ प्रकृतयोजनायाह एयस्स य जो हेऊ सो वहओ तेण तन्निवित्तीय। वंझासुयपिसियासणनिवित्तितुल्ला कहं होइ ।।२०८|| हुआ देखा जाता है उसी प्रकार साध्य-उपक्रमके योग्य बांधा गया-कर्म भी उपक्रमके बिना तो समयपर ही नष्ट होता है. किन्तु उपक्रमके वश वह बांधी गयी स्थितिके पूर्व भी नष्ट हो जाता है। इसलिए उन अकृताभ्यागम आदि दोषोंकी सम्भावना वहां नहीं रहती। हाँ, जिस प्रकार असाध्य रोगमें यह क्रम सम्भव नहीं है-वह समयपर ही नष्ट होता है-उसी प्रकार असाध्य कर्म भी समयपर ही नष्ट हुआ करता है। इस प्रकार रोगके समान कर्मको भी साध्य व असाध्यके भेदसे दो प्रकारका जानना चाहिए ॥२०४-२०५॥ आगे इस साध्य व असाध्यके स्वरूपको ही प्रकट किया जाता है प्रकृतमें उपक्रम सहित कर्मको साध्य और इतर-उस उपक्रमसे रहित-को असाध्य जानना चाहिए। यह कर्मका साध्य व असाध्य रूप विभाग जिनदेवके द्वारा कहा गया जानना चाहिए ।।२०६॥ आगे इस सबका निष्कर्ष प्रकट किया जाता है प्रकृतमें आयुका उपक्रम जिनागमसे सिद्ध है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिए। कारण यह है कि छद्मस्थ (अल्पज्ञ ) जीव केवलज्ञानके विषयभूत पदार्थों को समीचीनतया नहीं जानता है ॥२०७|| अब आगे इसका प्रकृतसे सम्बन्ध जोड़ा जाता है इस उपक्रमका जो हेतु है-दण्ड आदिके द्वारा प्राणीको पोड़ा पहुंचाने वाला है- वह वधक ( हत्यारा ) है। इसलिए उस वधको निवृत्ति बाँझ स्त्रीके पुत्रके मांसके भक्षगको निवृत्ति के समान कैसे हो सकती है। १. अनाउस्सवक्कमणसिसिद्ध जणवयणउ य सेद्धेयं । २. अ प्रकृतियोजनामाह (अतोऽग्रे 'यद्यस्माव छद्मस्थः' इत्येतावानधिकः पाठः लिखितोऽस्ति पूर्वगाथागतटीकायाः)। ३. अ वहगो जेण तं निवित्तेवं । ४. अ पिसियासिणिनिवत्तितुल्ला।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy