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________________ १२५ -२०३] अकालमरणाभाववादिनामभिमतनिरासः तह तुल्लंमि वि कम्मे परिणामाइकिरियाविसेसाओ। भिन्नो अणुभवकालो जिट्ठो मज्झो जहन्नो य ॥२०२॥ तथा तुल्येऽपि कर्मणि कर्मद्रव्यतया । परिणामादिक्रियाविशेषात्तीव-तीव्रतरपरिणामबाह्यसंयोगक्रियाविशेषेण। भिन्नोऽनुभवकालः कर्मणः। कथम् ? ज्येष्ठो मध्यो जघन्यश्चज्येष्ठो निरुपक्रमस्य यथाबद्धवेदनकालः, मध्यस्तस्यैव तथाविधतपश्चरणभेदेन, जघन्यःक्षपकश्रेण्यनुभवनकालः शैलेस्यनुभवनकालो वा; तथाविधपरिणामबद्धस्य तत्तत्परिणामानुभवनेन, अन्यथा विरोध इति ॥२०२॥ दृष्टान्तान्तरमाह जह वा दीहा रज्जू डज्झइ कालेण पुंजिया खिप्पं । वियओं पडो वि सूसइ पिंडीभूओ उ कालेणं ॥२०३।। उसो प्रकार कर्मके समान होनेपर भी परिणाम आदि क्रियाविशेषसे उसके अनुभवका काल उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य रूपसे भिन्न हुआ करता है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार वृक्षसे संलग्न आम आदि फल स्वाभाविक रूपसे कुछ लम्बे समयमें पक पाते हैं, पर उन्हीं फलोंको जब वृक्षसे तोड़कर पलाल आदिके मध्यमें रख दिया जाता है तब वे फल कुछ जल्दी हो पक जाते हैं। अथवा किसो नगरविशेषको जानेवाले मार्गको दूरीको मन्द गतिसे जानेवाला पुरुष उस मार्गसे चलकर विलम्बसे नगर में पहुंचता है, किन्तु शीघ्र गतिसे जानेवाला अन्य पुरुष उसी मार्गसे चलकर पूर्व पुरुषकी अपेक्षा शीघ्र ही नगरमें जा पहुंचता है। अथवा जिस प्रकार मन्दबुद्धि शिष्य जिस व्याकरणादि विषयक ग्रन्थ को पढ़कर दीर्घकालमें समाप्त कर पाता है उसे ही पढ़कर तीन बुद्धिवाला शिष्य शीघ्र समाप्त कर देता है। ठीक इसी प्रकारसे जो कोई कर्म जिस स्थिति और अनुभागके साथ बांधा गया है वह उपक्रमके बिना स्वाभाविक रूपमें उतनी स्थिति व अनुभागके भोग लेनेपर ही सविपाक निर्जरासे निर्जीर्ण होता है । यह उसका उत्कृष्ट काल है। पर उक्त स्थिति व अनुभागके साथ बांधा गया वही कर्म उपक्रमके वश तपश्चरण विशेषसे बद्ध स्थिति और अनुभागको होन कर समयके पूर्व हो निर्जराको प्राप्त करा दिया जाता है। इसे उसका मध्यम काल कहा जायेगा। वही कर्म क्षपकणि आरूढ़ हुए संयतके परिणामोंको विशेषतासे अतिशय होन स्थिति व अनुभागके रूपमें भोगा जाता है, अथवा शैलेशी अवस्थामें अयोगकेवलोके वह कर्म सर्वजघन्य स्थिति व अनुभागके साथ हो निर्जीर्ण होता है। यदि ऐसा न माना जाये तो मुक्तिको प्राप्ति भी असम्भव हो जावेगी। इसे उसका जघन्य समझना चाहिए। इस प्रकार परिणामोंकी विशेषताके अनुसार कर्म जब बन्धकी अपेक्षा भिन्न स्वरूपसे अनुभवमें आता है तब पूर्वोक्त अकृतागम व कृतनाशादि दोषोंको सम्भावना नहीं है ।।२००-२०२।। आगे रस्सो व वस्त्रका भी दृष्टान्त दिया जाता है १. अ 'परिणामा' इत्यतोऽग्रे टीकागत परिणामा' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. म यथावद्वेदन । ३. अ दृष्टांतमाह । ४. अ. वियतो।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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