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________________ १२४ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२००निदर्शनगर्भमुपपत्त्यन्तरमाह किंचिदकाले वि फलं पाइज्जइ पच्चए य कालेण । तह कम्मं पाइज्जइ कालेण विपच्चए चन्नं ॥२०॥ किञ्चिदकालेऽपि पाककालादारतोऽपि । फलमाम्रफलादि । पाच्यते गर्ताप्रक्षेप-कोद्रवपलालस्थगनादिनोपायेन । पच्यते च कालेन किचित्तत्रस्थमेव स्वकालेन पच्यते। यथेदं तथा कर्म पाच्यते उपकाम्यते विचित्ररुपक्रमहेतुभिः । कालेन विपच्यते चान्यत् विशिष्टानुपक्रमहेतून् विहाय विपाककालेनैव विपाकं गच्छतीति ॥२०॥ दृष्टान्तान्तरमाह भिन्नों जहेहं कालो तुल्ले वि पहंमि गइविसेसाओ । सत्थे व गहणकालो मइमेहाभेयओ भिन्नो ॥२०१॥ भिन्नो यथेह कालो ऽधप्रहरादिलक्षणस्तुल्येऽपि पथि समाने योजनादौ मार्गे । गतिविशेषाद् गमनविशेषेण शीघ्रगतिरर्धप्रहरेण गच्छति, मध्यमः प्रहरेणेत्यादि । शास्त्रे वा व्याकरणादौ ग्रहणकालो मतिमेधाभेदादभिन्नः कश्चिद्वादशभिर्वर्षेः तदधीते, कश्चिद्वर्षद्वयेनेत्यादि ॥२०१॥ एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयःभी उचित नहीं होगा, क्योंकि यथाक्रमसे नारकादि भवोंमें उसका अनुभव करते हुए वहां चारित्रके सम्भव न होनेसे उत्तरोत्तर बन्ध ही अधिक होनेवाला है। ऐसी अवस्था में बन्धकी उस प्रक्रियाके चालू रहनेपर मोक्षकी प्राप्ति असम्भव हो जावेगी जो वादोको भी इष्ट नहीं होगो ।।१९८-१९९॥ इसके लिए दृष्टान्तपूर्वक अन्य युक्ति भी दी जाती है आम आदि कोई फल अकालमें भी-पाक-कालके पूर्वमें भी गड्ढे में या कोदोंके पलाल आदिमें रखकर कृत्रिम उपायसे-पका लिया जाता है, और कोई फल बाहरी उपायके बिना वृक्षपर ही संलग्न रहकर समयपर भी पकता है। उसी प्रकारसे कोई कर्म तपश्चरण आदि रूप उपक्रमके विविध कारणोंके द्वारा अपनी स्थितिके पूर्वमें विपाकको प्राप्त करा दिया जाता है तथा अन्य कोई कर्म उपक्रमके बिना समयके अनुसार ही विपाकको प्राप्त होता है ॥२०॥ आगे दूसरा दृष्टान्त भी उपस्थित करते हैं जिस प्रकार मागंके लम्बाईमें समान होनेपर भी पथिकोंकी गतिकी भिन्नतासे उसके पूरा करने में भिन्न-भिन्न समय लगता है-शोघ्र गतिवाला पुरुष जहाँ उसे घण्टे-भरमें पूरा कर लेता है वहीं मन्द गतिवाला उसे डेढ़-दो घण्टोंमें पूरा कर पाता है। अथवा जैसे व्याकरण आदि विषयक किसी शास्त्र अध्ययनमें बुद्धि व मेधाको भिन्नतासे भिन्न समय लगता है-कोई तीक्ष्णबुद्धि शिष्य जहाँ उसे छह मासमें पढ़ लेता है वहीं मन्दबुद्धि शिष्य उसीको वर्ष-भरमें या उससे भो अधिक समयमें पढ़ पाता है ॥२०१॥ आगे इन दृष्टान्तोंसे दान्तिकी समानता प्रकट को जाती है१. अमेव कालेन । २. अ उपक्रम्यते । ३. अ भिन्ने । ४. अ 'जहे-' इत्यतोऽने टीकागत 'लक्षणस्तुल्ये' पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । ५. म माम्रगति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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