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________________ १२२ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१९६ - स हि तमेकदिवसेनैव' भुक्तं व्याधिसामर्थ्यात् । न च तत्र किंचिन्नश्यति संपूर्णभोगात् । एवमुपक्रमकर्मभोगेऽपि योज्यामिति ॥१९५॥ एतदेवाह सव्वं च पएसतया भुज्जइ कम्ममणुभावओ भइयं । तेणावस्साणुभवे के कयनासादओ तस्स ॥१९६॥ सर्व च प्रदेशतया कर्मप्रदेशविचटन-क्षपणलक्षणया। भुज्यते कर्म । अनुभावतो भाज्यं विकल्पनीयम् । विपाकेन तु कदाचिद्भुज्यते कदाचिन्नेति, क्षपकणिपरिणामादावन्यथापि भोगसिद्धेरन्यथा निर्मोक्षप्रसङ्गात् । तेन कारणेन । अवश्यानुभवे प्रदेशतया नियमवेदने । के कृतनाशादयः ? नैव कृतनाशादय इति ॥१९६॥ कि च उदयक्खयक्खओवसमोवसमा जंच कंमुणो भणिया । दव्वाइपंचयं पड़ जुत्तमुवक्कामणमओ वि ॥१९७॥ उदय-क्षय-क्षयोपशमोपशमाः यच्च यस्मात्कारणात् कर्मणो भणितास्तीर्थकरगणधरैः । योग्य आहारक अग्निक ( भस्मक ) रोगी शीघ्र ही भोग लेता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सौ वर्ष तक चलनेवाले आहारको भस्मकरोगी एक ही दिनमें खाकर समाप्त कर देता है उसी प्रकार उपक्रमके वश दीर्घ काल तक भोगे जानेवाले कर्मका विनाश शीघ्र हो जाता है ।।१९५॥ आगे इसीको स्पष्ट करते हैं-- वह कर्म प्रदेशरूपसे तो सब ही भोगने में आ जाता है, पर अनुभाग रूपसे वह भाज्य हैविपाकके रूपमें वह कदाचित् भोगा भी जाता है और कदाचित् नहीं भी भोगा जाता है। इस कारण उसका अवश्य अनुभव कर लेनेपर वादीके द्वारा उद्भावित वे कृतनाशादिक दोष कहां सम्भव है ? उनकी सम्भावना यहाँ सर्वथा नहीं है। विवेचन-अभिप्राय यह है कि जब उस कर्मको उपक्रमके वश प्रदेशस्वरूपसे पूरा भोग लिया जाता है व उसका कुछ शेष नहीं रहता है तब वादीने अकृताभ्यागम, कृतनाश और मोक्षविषयक अनाश्वासतारूप जिन दोषोंको उद्भावित किया था उनको सम्भावना नहीं है। विपाकस्वरूपसे जो उसे भाज्य कहा गया है, इसका कारण यह है कि क्षपकश्रेणिमें अपूर्वकरणादि विशिष्ट परिणामोंके द्वारा उसके विपाकका वेदन अन्य रूप में भी हआ करता है। यदि ऐसा न हो तो बन्ध व निर्जराके क्रमके निरन्तर चालू रहनेपर मोक्ष कभी न हो सकेगा। इस प्रकार विपाकरूपसे भले ही उसका अन्यथा वेदन हो, पर प्रदेशरूपसे जब वह पूरा भोग लिया जाता है तब उक्त कृतनाशादि दोष सम्भव नहीं है ॥१९६।। इसके अतिरिक्त ___कर्मके विषयमें चूंकि उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम कहे गये हैं इसलिए भी द्रव्य आदि पांचके निमित्तसे उपक्रम कराना योग्य है विवेचन-आगममें कर्मकी उदयादिरूप विविध अवस्थाओंका निर्देश किया गया है। वे १. अ व्याधिमातो भोगे सति तदेक सति तदेकदिवसेनैव । २. अ कम्मा। ३. अ क्षपण कश्रेणीपरिणामोदवेन्यथा भोगे । ४. अदव्वातिपंचयं । ५. म मतो। ६. अ यस्माच्च कारणात् ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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