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________________ - १९५] अकालमरणाभाववादिनामभिमतनिरासः १२१ कर्मोपक्राम्यते अर्धमार्ग एव क्षयमुपनीयते। अप्राप्तकालमपि स्वविपाकापेक्षया यदि । ततःप्राप्तावकृतागम-कृतनाशौ-अपान्तराल एव मरणादकृतागमः, प्रभूतकालोपभोग्यस्यारत एव क्षयात्कृतनाशः। मोक्षानाश्वासता अतः मोक्षेऽनाश्वासता अनाश्वासभावः मृत्यवत् अकृतस्यापि कर्मणो भावाशङ्कानिवृत्तेः कृतस्यापि च कर्म [ कर्मणः क्षयश्च नाशसंभवात् । एत एव दोषा इति एष पूर्वपक्षः॥१९४॥ अधुनोत्तरपक्षमाह न हि दीहकालियस्स वि नासो तस्माणुभूइओ खिप्पं । बहुकालाहारस्स वं दुयमग्गियरोगिणो भोगो ॥१९५॥ न हि नैव । दीर्घकालिकस्यापि प्रभूतकालवेद्यस्यापि उपक्रमतः स्वल्पकालवेदनेऽपि नाशः। तस्य कर्मणः । अनुभूतितः क्षिप्रं समस्तस्यैव शीघ्रमतुभूतेः। अत्रैव निदर्शनमाह-बहुकालाहारस्येव सेतिका-पलभोगेन वर्षशताहारस्येव । द्रुतं शोघ्र अग्निकरोगिणो भस्मकव्याधिमतो भोगः, विवेचन-जो वादी अकालमरणको स्वीकार नहीं करते हैं उनका कहना है कि प्राणोने जितनी स्थिति प्रमाण-आयुकर्मको पूर्वमें बांधा है उसको उतनी स्थितिके क्षीण हो जानेपर ही जीव मरणको प्राप्त होता है, इसके पूर्व वह नहीं मरता है। तथा आयुकर्मको स्थितिके क्षीण हो जानेपर प्राणी कभी जीवित नहीं रह सकता है। इस प्रकार वह अन्य किसो निमितके बिना स्वयमेव मरणको प्राप्त होता है। ऐसो स्थितिमें जब वधको सम्भावना ही नहीं है तब उस वधकी निवृत्ति कराना मूर्खतापूर्ण हो होगा। इसपर यदि कोई वादोसे यह कहे कि उपक्रमसे--विषशस्त्रादिरूप आयुके अपवर्तनके निमित्तसे-उस आयुकर्मका क्षय नियत स्थितिके पूर्व में भी कराया जा सकता है तो वह भी योग्य नहीं है, क्योंकि समयके प्राप्त होनेके पूर्वमें ही यदि आयुका क्षय होता है तो इससे अकृत-आगम और कृतनाश दोष उपस्थित होते हैं। कारण यह कि जितने काल प्रमाण आयुको किया गया था उतनी आयुस्थितिके भोगे बिना हो चूंकि प्राणो बीचमें ही उपक्रमसे मरणको प्राप्त हो जाता है, इसलिए यह तो अकृतागम हुमा तथा दोघं काल तक जिस आयुकर्मको भोगना चाहिए था उसका पूर्व में ही विनाश हो गया, यह कृतका नाश हुआ। इस प्रकार उपक्रमसे बीच में ही आयुकर्मका विनाश माननेपर ये दो दोष बलात् उपस्थित होते हैं । साथ ही मोक्षके विषयमें भी इस प्रकारसे कोई अश्वासन प्राप्त नहीं होता, क्योंकि बीच में हुए मरणके समान अकृत कर्मके सद्भावकी शंका बनी रहने के साथ कृत कर्मके नाशको भी सम्भावना बनी रहती है। इस प्रकार प्रसंगप्राप्त इन दोषोंके कारण जब अकालमरणको सम्भावना नहीं है तब किसी प्राणीका वध किया ही नहीं जा सकता है। ऐसी स्थितिमें उस वधका निवृत्ति कराना निरर्थक व अज्ञानतापूर्ण हो कही जायेगी। इस प्रकारसे वादोने अपने पक्षको स्थापित किया है ॥१९२-१९४॥ अब इस अभिमतका निराकरण करते हुए दीर्घकालिक कर्मका भी शोघ्र नाश हो सकता है, इसे स्पष्ट किया जाता है वादोकां वह कथन युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि लम्बे समय तक भोगे जानेवाले उस कर्मका उपक्रमके वश शीघ्र ही भोगने में आ जानेसे नाश हो जाता है। जैसे-बहुत काल तक उपभोगके १.अ भोग्यस्यातरत । २.अ मोक्षानासाश्वता अत एव मोक्षे अनाश्वासस्तदभावः मृत्युवत् । ३. अ भूतिउ । ४. अ वि दुयमग्गीय । ५. अ पलाभोगेन ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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