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________________ - १७०] वधनिवृत्तिनिरर्थकत्ववादिनामभिमतनिरास: १०७ किमपि योषितासेवनादिकम् । कथमपि क्लिष्टकर्मोदयात् कृत्वा । किमात्मनोऽबोधिलाभनिवर्तनीयकर्मबन्धहेतुत्वेन । परस्य च श्रावकादेविपरिणामकरणेन । न भवत्यपकारहेतुर्भवत्येवेति ॥१६॥ किं इय न तित्थहाणी किं वा वहिओ न गच्छई नरयं । सीहो किं वा सम्मं न पावई जीवमाणो उ ॥१६॥ किमेवं न तीर्थहानिस्तीर्थहानिरेव'। किं वा वधितो व्यापावितः क्रूराशयत्वान्न गच्छति नरक सिंहो गच्छत्येव। किं वा सम्यक्त्वं न प्राप्नोति जीवन सिंहोऽतिशयवत्साधुसमीपे संभवति प्राप्तिरिति ॥१६९॥ किं वा तेणावहिओ कहिंचि अहिमाइणा न खज्जेजा। सो ता इहपि दोसो कहं न होइ ति चिंतमिणं ॥१७॥ किं वा तेन सिंहेनाहतोऽव्यापादितः सन् । कथंचिद्रजन्यां प्रमादादह्यादिना सर्पण गोनसेन वा।न खाद्य त स आचार्यः ? संभवति सर्वमेतत् । यस्मादेवं तस्मादिहापि दोषो भवदभिमतः कथं न भवतीति चिन्स्यमिदं विचारणीयमेतदिति ॥१७०॥ यतश्चैवमतः उसी प्रकार आगन्तुक दोषकी ही सम्भावनासे यहाँ उसके समाधानमें भी यह कहा जा रहा है कि सिंहके वधसे बचकर वह साधु किसी निकृष्ट आचरणको करके क्लिष्ट कमको बांधता हुआ क्या उसके उदयसे स्वयं अपना अहित नहीं कर सकता था? यह भी सम्भव था। इसी प्रकार वह कुमार्गका उपदेश करके क्या दूसरे जोवोंके अहितका भी कारण नहीं बन सकता था ? यह भी असम्भव नहीं था। तात्पर्य यह है कि आगन्तुक दोषकी सम्भावनासे किसी भी प्राणीका वध करना न्यायसंगत नहीं है। कारण यह कि आगन्तुक दोषको सम्भावनामें जहां लोककल्याण हो सकता है वहां उसकी सम्भावनासे अपना व दूसरोंका अहित भी हो सकता है ॥१६८।। उससे और भी क्या अनर्थ हो सकता है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है इस प्रकार-सिंहसे बचकर निकृष्ट आचरण करनेपर-भी क्या उस युगप्रधानके द्वारा तीर्थकी हानि नहीं हो सकती थी? इस प्रकारसे भी वह तीर्थहानि हो सकती थी। अथवा क्या इस प्रकारसे मारा जाकर वह सिंह दुष्ट आभप्राय के कारण नरकको नहीं जा सकता है ? अवश्य जा सकता है । अथवा वही सिंह जीवित रहकर क्या सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त कर सकता है ? जीवित रहकर वह किसी अतिशयवान् साधुके समीपमें उस सम्यक्त्वको पा करके आत्मकल्याण भी कर सकता है। इस कारण आगन्तुक दोषको सम्भावनासे सिंहादिक किसी भी प्राणाका वध करना उचित नहीं है ।।१६९।। इसके अतिरिक्त ___ अथवा उक्त आचार्य सिंहके द्वारा न मारा जाकर क्या किसी प्रकार-अंधेरी रातमे प्रमादके वश होकर-सपं आदिके द्वारा नहीं खाया जा सकता है ? यह भी सम्भव है। इस प्रकार यहां भी–सिंहसे बचाये जानेपर भी-कैसे दोष नहीं हो सकता है? सिंहसे उसके बचाये जाने पर भी उपर्युक्त दोष सम्भव है। इस प्रकार वादोका उपर्युक्त कथन सोचनीय है-वह युक्तिसंगत नहीं है ॥१७०॥ ___आगे आगन्तुक दोषोंकी सम्भावनासे समस्त लोकव्यवहारका भी लोप हो सकता है, इसे दिखलाते हैं१. मन तीर्थहानिरेव । २. अ भाइणो न हज्जेज्जा। ३. म विसूइगादीणं संभवं तत्थ कि दोसो।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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