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________________ श्रावक प्रज्ञप्तिः [ १६७ - ततस्तस्मादाचार्यंघातात्तीर्थोच्छेदः धनितमत्यर्थमनर्थः प्रभूतसत्त्वानां दर्शनाद्यनवाप्त्या मुमुक्षूणाम् । यतश्चैवं तत्तस्मात् । कथं न भवति दोषः । तेषां प्रत्याख्यातृप्रत्याख्यापयितॄणाम् । इह विनाशकरणे | निवृत्तिवादिनां भवत्येवेति ॥ १६६ ॥ तम्हा नेव निवित्ती कायव्वा अवि य अप्पणा चेव । १०६ अद्धोचियमालोचिय अविरुद्धं होइ कायव्वं ॥१६७॥ यस्मादेवं तस्मान्नैव निवृत्तिः कार्या अपि चात्मनैवाद्धोचितं कालोचितमालोच्य अविरुद्धं भवति कर्तव्यं यद्यस्यामवस्थायां परलोकोपकारीति एषः पूर्वपक्ष: ॥१६७॥ अत्रोत्तरमाह सीवहरक्खिओ सो उड्डाहं किंपि कह वि काऊणं । किं अपणो परस्स य न होइ अवगारहेउ त्ति ॥ १६८ ॥ gaaf दोषसंभवे नन्दिमपि संभवति - सिंहवघरक्षितोऽसावाचार्य उड्डाहमुपघातम् । विवेचन -- वादीका अभिप्राय यह है कि यदि श्रावकको अणुव्रत में प्राणवधनिवृत्ति न करायी गयी होती तो वह उस युगप्रधान के घातक उस सिंह आदिका वध करके उसकी रक्षा कर सकता था। इस प्रकार जीवित रहनेपर वह बहुतसे जीवोंको सदुपदेश देकर उन्हें सम्यक्त्व आदि ग्रहण करा सकता था, जिससे उनका कल्याण होनेवाला था । किन्तु उसके असमय में मर जानेसे उसके द्वारा जो उन प्राणियोंका हित होनेवाला था उससे वे वंचित रह जाते हैं । यह अपराध प्राणवधका प्रत्याख्यान करनेवाले और करानेवाले दोनोंका है । अतः इस आगन्तुक दोषको सम्भावना से प्राणवधका प्रत्याख्यान करना व कराना उचित नहीं है, यह उस वादोका अभिप्राय है || १६६ ॥ इससे वादीको क्या अभीष्ट है, इसे वह आगे प्रकट करता है इस कारण प्राणवनिवृत्ति नहीं कराना चाहिए। किन्तु स्वयं ही समयोचित आलोचनाको करके जिसमें किसी प्रकारका विरोध सम्भव न हो ऐसा आचरण करना चाहिए। विवेचन - वादी अपने अभिमतका उपसंहार करता हुआ कहता है कि इस प्रकारसे जो लोकका अहित होनेवाला है उसके संरक्षणकी दृष्टिसे किसीको प्राणवधका प्रत्याख्यान नहीं कराना चाहिए । यदि कभी लोकहितको दृष्टिसे किसी क्रूर प्राणीका घात भी करना पड़े तो उसे करके समयानुसार यथायोग्य आलोचनापूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण करके अपनेको दोषसे मुक्त करना ही उचित है। इस प्रकार वादीने यहां ( १६४-६७ ) अपने पक्षको स्थापित किया है || १६७ || वादी उक्त अभिमतका निराकरण करते हुए आगे उक्त युगप्रधानसे अहितकी भी सम्भावना प्रकट की जाती है सिंहके वधसे रक्षित वह युगप्रधान क्या किसी परस्त्रीसेवनादिरूप निकृष्ट आचरणको किसी प्रकार से – क्लिष्ट कर्मके उदयसे - करके अपने व अन्य के अपकारका कारण नहीं हो सकता था ? यह भी सम्भव था । विवेचन - अभिप्राय यह है कि वादोने जिस प्रकार आगन्तुक दोषको सम्भावना में प्रकृत युगप्रधान के जीवित रहनेपर उसके द्वारा होनेवाले लोककल्याणको सम्भावना व्यक्त की है, ठीक १. भ दोषो थेषां ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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