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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [ १४८ - भाव आपद्यते । कुतोऽन्योन्यापेक्षया अविरोधिनमप्यन्यमपेक्ष्यान्यस्य निवृत्तिरन्यं पान्यस्येति शून्यतापत्तिरिति ॥१४७॥ अह तं अहेउगं चिय कहं नु अत्थि त्ति अवगमो कह य । नागासमाइयाणं कुओवि सिद्धो इह विणासो ॥१४८॥ ___ अथैवं मन्यसे तत्कर्माहतुकमेव निर्हेतुकमेवेत्येतदाशङ्कयाह-कथं त्वस्तीति नैवास्ति, तदहे त्वात् खरविषाणादिवत् । आकाशादिना अहेतुकेन सता व्यभिचारमाशङ्कयाह-अपगमः कथं विनाशश्च कथमस्येति । एतदेव भावयति-नाकाशादीनां नाकाशधर्मास्तिकायप्रभृतीनाम् । कुतश्चिल्लकुटादेः सिद्ध इह विनाशः, अहेतुकत्वेन नित्वत्वादिति ॥१४८॥ इत्तु च्चिय असफलत्ता नो कायव्वो वहु त्ति जीवाणं । वहहेउगं चिय तयं कहं निवित्ती तओ तस्स ॥१४९॥ अतोऽपि चाहेतुककर्माविनाशित्वेन । अफलत्वात् कर्मक्षयफलशून्यत्वात् । न कर्तव्यो वधो जीवानामिति । वधहेतुकमेव तत्स्याद्वधनिमित्तमेव तत्कर्मेत्येतदाशङ्कयाह-कथं केन प्रकारेण । वादीके अभिमतानुसार विनाशका कारण सम्भव है। इस परिस्थितिमें किसी वस्तुको उत्पत्ति तो होती नहीं और विनाश उनका होता रहेगा, तब इस प्रकारसे समस्त वस्तुओंका अभाव हो जानेपर शून्यताका प्रसंग दुनिवार होगा। इससे विरोधीके द्वारा ही किसी वस्तुका विनाश मानना उचित है न कि अविरोधीके द्वारा। इस प्रकार प्राणिवध अविरोधी होनेसे कर्मके क्षयका कारण नहीं हो सकता ॥१४७॥ आगे कर्मको अहेतुक माननेपर उसके विषयमें भी दोष दिखलाते हैं यदि वादीके अभिमतानुसार वह कम अहेतुक है-कारणसे रहित है-तो वह 'है' ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता-वैसा स्वीकार करनेपर उसका खरविषाण आदिके समान निर्हेतुक होनेसे अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा। इसपर यदि यह कहा जाये कि निर्हेतुक आकाशादिके समान उसके अस्तित्वमें कुछ बाधा सम्भव नहीं है, तो इसपर कहा गया है कि तब उसका विनाश कैसे होगा ? नहीं हो सकेगा। अभिप्राय यह है कि अहेतुक नित्य आकाश व धर्मास्तिकाय आदिका जिस प्रकार किसी दण्ड आदिके द्वारा विनाश सिद्ध नहीं है उसी प्रकार उस अहेतुक कर्मका भी आपके मतानुसार विनाश नहीं हो सकेगा ॥१४८।। ___ इसका क्या परिणाम होगा, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है इससे-नित्य आकाश आदिके समान उस कर्मका विनाश न हो सकनेके कारण-निष्फल होनेसे जीवोंके वधको नहीं करना चाहिए। इसपर यदि यह कहा जाये कि वह कम वधहेतुक हो है तो इसके उत्तर में वादोसे कहा गया है कि वैसा होनेपर वधके आश्रयसे होनेवाले उस कर्मकी निवृत्ति उसी वधके द्वारा कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है। विवेचन--यह पूर्वमें कहा जा चुका है कि यदि वादो कर्मको अकारणक मानता है तो उसका नित्य आकाश आदिके समान विनाश असम्भव हो जायेगा। और जब इस प्रकारसे उसका विनाश ही असम्भव होगा तब वादीने जो अपना अभिमत प्रकट करते हुए यह कहा था कि दुखी जीवोंके वधसे उनके कर्मका क्षय होता है, यह असंगत ठहरता है। इसीलिए कर्मक्षयके उद्देश्यसे १. भ गोगासमाइणं कुईयो। २. अ एत्तो। ३. अ कायव्वा वाहो त्ति । ४. अ कर्मविनाशहेतुत्वेन ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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