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________________ -१४७] सामान्येन प्राणवषविरतौ शंका-समाधानम् हिमजणियं सीयं चिय अवेइ अनलाओ नायवो वेइ । एवं अणभुवगमे अइप्पसंगो बला होइ ॥१४६॥ हिमजनितं शीतमेवापैत्यनलात्, शीतकारणविरोधित्वादनलस्य। नातपोऽपैति, तत्कारणाविरोधित्वादनलस्य । एवमनभ्युपगमे कारणविरोधिनः सकाशान्निवृत्तिरित्यनङ्गीकरणे। अतिप्रसङ्गो बलाद् भवति तन्निवृत्तिवत्तदन्यनिवृत्तिलक्षणा अव्यवस्था नियमेनापद्यत इति ॥१४६॥ एतदेवाह तब्भावंमि अजं किंचि वत्थु जत्तो कुओ वि न हविज्जा । एवं च सव्वऽभावो पावइ अन्नुन्नविक्खाए ॥१४७॥ तद्भावेऽपि चातिप्रसङ्गभावे च । यत्किचिदत्र वस्तुजातम् । यतः कुतश्चित्सकाशान्न भवेत्, अप्रतिपक्षादपि निवृत्त्यभ्युपगमात् । अत्रानिष्टमाह-एवं च सति सर्वाभावः प्राप्नोति अशेषपदार्थापदार्थके रहनेपर भी उस अविरुद्ध हेतुभूत वधसे कभी नष्ट नहीं किया जा सकता है-उसका विनाश विरुद्ध कारणसे ही सम्भव है, न कि अविरुद्ध कारणसे ॥१४५।। इसीको आगे उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है हिम (बर्फ) से उत्पन्न हआ शैत्य ही अग्निके निमित्तसे नष्ट होता है. आतप उसके निमित्तसे नष्ट नहीं होता है । इस सामान्य नियमको न माननेपर अतिप्रसंग अनिवार्य होगा। विवेचन-यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि जो जिसके कारणका विरोधी होता है उसकी समीपतामें वह नष्ट हो जाता है। जैसे-अग्नि यदि शीतताके कारणभूत हिमको विरोधो है तो उसकी समीपतामें वह हिमसे उत्पन्न हई शीतता स्वभावतः नष्ट होती हई देखी जाती है। इ विपरीत जो जिसके कारणका विरोधी नहीं होता है उसकी समीपताके होनेपर भी वह उसके आश्रयसे नष्ट नहीं होता है। जैसे--वहो अग्नि चूंकि आतपकी कारणभूत सूर्यको किरणोंको विरोधी नहीं है, इसीलिए उसके समीप रहनेपर भो वह आतप ( उष्णता ) नष्ट नहीं होता है। प्रकृतमें वधक्रिया चूंकि कर्मके कारणभूत अज्ञान आदि की विरोधी नहीं है इसीलिए उस वधक्रियाके आश्रयसे वह अज्ञानजनित कर्म नष्ट नहीं हो सकता है। इतना स्पष्ट होनेपर भी यदि उपर्युक्त सर्वसम्मत सिद्धान्तको नहीं स्वीकार किया जाता है तो फिर जिस किसीके भी सद्भाव में जो भी कोई नष्ट हो सकता है, इस प्रकारसे जो अव्यवस्था होनेवालो है उसका निवारण नहीं किया जा सकता है ॥१४६॥ आगे उस अतिप्रसंगसे होनेवाली अव्यवस्थाको दिखलाते हैं और उस अतिप्रसंगके सद्भावमें जो कोई भी वस्तु जिस किसीके निमित्तसे नहीं हो सकेगो। तब वैसी स्थिति में परस्परको अपेक्षासे सब ही पदार्थों के अभावका प्रसंग बलात् प्राप्त होगा। विवेचन-इसका अभिप्राय यह है कि किसी वस्तुका विनाश उसके विरोधीके द्वारा ही होता है. जैसे शीतका विनाश उसको विरोधो अग्निके द्वारा। पर वादो जब इस स्वभावसिद्ध नियमको न मानकर अविरोधी पदार्थके निमित्तसे भी विवक्षित वस्तुका विनाश स्वीकार करता है तब वैसी अवस्थामें जो किसी वस्तुकी उत्पत्तिका कारण है वह तो अविरोधी होता हुआ भी १. अ अइप्पसंवेगो।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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