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________________ - १३९] सामान्येन प्राणवधविरतौ शंका-समाधानम् अप्रतिष्ठानेऽपि सप्तमनरकपृथिवीनरके' । संक्लेशत एव तथोत्क्षेपनिपातजनितदुःखादेव । कर्मक्षपणमिति, नान्यथा। न यस्मात्तदभावे संक्लेशाभावे । सुरो देवस्तत्रापि नरके यथासंभवं कथंचिद्गतः सन् । चशब्दादन्यत्र च संक्लेशरहितः। क्षपयति तत्कर्म यत्प्रवाहतो नरकवेदनीयमिति ॥१३८॥ उपसंहरन्नाह तम्हा ते वहमाणो अट्टज्झाणाइसं जणंतो वि । तक्कम्मक्खयहेऊ न दोसवं होइ णायव्वो ॥१३९॥ यस्मादेवं तस्मात्तान् दुःखितान् प्राणिनः। नन् व्यापादयन् । आतंध्यानादिकं जनयन्त आर्त-रौद्रध्यानं चित्रं च संक्लेशं कुर्वन्नपि। तेषां कर्मक्षयहेतुस्तेषां दुःखितानां कर्मक्षयनिमित्तमिति कृत्वा । न दोषवान् भवति ज्ञातव्यः संसारमोचक इति अयमपि पूर्वपक्षः॥१३९॥ ___ अत्रोत्तरमाह होता है । यहो कारण है जो उस संक्लेशके अभावमें वहाँ पहुँचा हुआ नारको उस कर्मका क्षय नहीं करता है। विवेचन-वादीके कहनेका अभिप्राय यह है कि सातवीं पृथिवीगत अप्रतिष्ठान नरकमें स्थित नारकियोंके नरकमें अनुभव करने योग्य उस कर्मके क्षयका यद्यपि दूसरा कोई निमित्त नहीं है फिर भी वहाँ नारक बिलके ऊपर स्थित जन्मभूमि में उत्पन्न नारकी उस ऊंची जन्मभूमिसे स्वभावतः नीचे गिरकर गेंदकी तरह पुनः पुनः उछलते हैं और गिरते हैं। इससे जो उन्हें महान् कष्ट होता है उसीके अनुभवनसे उनके उस कर्मका क्षय होता है। यही कारण है जो नरकों में कुछ समयके लिए जानेवाले देवोंके उस जातिके संक्लेशके न होनेसे उस कर्मका क्षय नहीं होता ।।१३८॥ आगे वादो इस सबका उपसंहार करता है इस कारण उन दुखी जीवोंका वध करनेवाला व्यक्ति उनके आर्त और रौद्र ध्यानको उत्पन्न करता हुआ भी उनके पापके क्षयका ही वह कारण होता है। इसीलिए वह दोषवान् ( अपराधी ) नहीं है, ऐसा जानना चाहिए। विवेचन-संसारमोचकोंका मत है कि जो कीट-पतंग आदि दुखी जीव हैं वे संसारमें परिभ्रमण करते हुए दुख भोग रहे हैं। उनका वध करनेसे वे उस दुखसे छुटकारा पा सकते हैं । इस प्रकार मारे जानेपर उनके यद्यपि आर्त व रौद्ररूप दान हो सकता है. फिर भी चकि मार देनेपर उनके पापका क्षय होता है. इसलिए मारनेवाला दोषी नहीं होता, अपित उनके पापके क्षयका कारण हो वह होता है। इस वस्तुस्थितिके होनेपर प्रथम अणुव्रतमें सामान्यसे स्थूल प्राणियोंके घातका प्रत्याख्यान न कराकर विशेषरूपमें सुखी प्राणियोंके ही प्राणघातका प्रत्याख्यान करना चाहिए । अन्यथा, दुखी प्राणियोंके भी प्राणघातका परित्याग करानेसे वे जीवित रहकर उस पापजनित दुखको दीर्घ काल तक भोगते रहेंगे, जबकि इसके विपरीत मारे जानेपर वे उस पापसे छुटकारा पा जावेंगे। इस प्रकार यहां संसारमोचकोंने अपने पक्षको स्थापित किया है।।१३९।। आगे उसका निराकरण करते हुए वादीसे यह पूछते हैं कि उनके कर्मक्षपणसे घातकको क्या लाभ होनेवाला है १. सप्तमनरके । २. म हेउं ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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