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________________ - ८७] सम्यक्त्वातिचारप्ररूपणा ६१ देशशङ्का देशविषया, यथा किमयमात्माऽसङ्ख्येयप्रदेशात्मकः स्यादथ निःप्रदेशो निरवयवः स्यादिति । सर्वशङ्का पुनः सकलास्तिकाय व्रात एवं किमेवं स्थान्नैवमिति । कांक्षाऽन्योन्यदर्शनग्राहः सुगतादिप्रणीतेषु दर्शनेषु ग्राहोऽभिलाष इति । सा पुनद्वभेदा देश- सर्वभेदात् । देशविषया एकमेव सौगतं दर्शनमाकांक्षति - चित्तजयोऽत्र प्रतिपादितोऽयमेव च प्रधानो मुक्तिहेतुरिति, अतो घटमानकमिदं न दूरापेतमिति । सर्वकांक्षां तु सर्वदर्शनान्येव कांक्षति - अहिंसाप्रतिपादनपराणि सर्वाण्येव कपिल-कणभक्षाक्षपाद - मतानि इह लोके च नात्यन्तक्लेशप्रतिपादनपराणि, अतः शोभनान्येवेति । सत्यपि विचिकित्सा - सिध्येत न मेऽयमर्थं इति । अयमत्र भावार्थ: - विचिकित्सा मतिविभ्रमो युवत्यागमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं प्रति संमोहः किमस्य महतस्तपः क्लेशायासस्य सिकताकणकवलकल्पस्थ कनकावल्यादेरायत्यां मम फलसंपद्भविष्यति किं वा नेति । उभयथेह क्रियाः फलवत्यो निष्फलाश्च दृश्यन्ते कृषीबलानाम् । न चेयं शङ्कातो न भिद्यते इत्याशङ्कनीयम्, शंका हि सकलासकलपदार्थ भाक्त्वेन द्रव्य-गुणविषया, इयं तु क्रियाविषयैव । तत्त्वतस्तु सर्वं एते प्रायो इसी प्रकार है या वैसा नहीं है' इस प्रकारका जो सन्देह रहता है, इसे शंका कहा जाता है । यह सम्यवत्वको मलिन करनेवाला उसका एक अतिचार है। अतिचार, व्यतिक्रम और स्खलित ये समानार्थक शब्द हैं । अभिप्राय यह है कि विवक्षित व्रतादिसे देशतः स्खलित होना या उसे प्रतिकूल आचरणके द्वारा मलिन करना, इसे अतिचार समझना चाहिए। वह शका देशशंका और सर्वशंकाके भेदसे दो प्रकारकी है । 'क्या यह आत्मा असंख्यात प्रदेशवाला है अथवा प्रदेशोंसे रहित निरवयव है' इस प्रकार उक्त अस्तिकायों में से किसी एकके विषय में सन्देह बना रहना, इसका नाम देशशंका है । सभी अस्तिकायोंके विषय में हो 'क्या इस प्रकार है अथवा वैसा नहीं है' इस प्रकार - जो सन्देह बना रहता है उसे सर्वशंका कहते हैं । बुद्ध आदिके द्वारा प्रणीत दर्शनविषयक अभिलाषाका नाम कांक्षा है | वह देशकांक्षा और सर्वकांक्षाके भेदसे दो प्रकारकी है । इन दर्शनोंमें किसी एक ही बौद्ध आदि दर्शनविषयक जो अभिलाषा होती है वह देशकांक्षा कहलाती है । जैसे-बौद्ध दर्शन में चित्तके जयका प्रतिपादन किया गया है, यहो मुक्तिका प्रमुख कारण है, अत: वह युक्तिसंगत है; इस प्रकार एक बौद्ध दर्शनकी ही अभिलाषा करना । कपिल, कणाद और अक्षपाद आदि महर्षियोंके द्वारा प्रणीत सभी दर्शन अहिंसाका प्रतिपादन करनेवाले हैं तथा उनमें अतिशय क्लेशका भी प्रतिपादन नहीं किया गया है, अतः वे उत्तम हैं; इस प्रकार सभी दर्शन विषयक अभिलाषाको सर्वकांक्षा कहा जाता है । यह उस सम्यक्त्वका दूसरा अतिचार है । यह अर्थ मुझे सिद्ध हो सकता है या नहीं, इस प्रकारसे युक्ति व आगमसे संगत यथार्थ भी पदार्थ के विषय में जो फल की प्राप्तिविषयक बुद्धिभ्रम होता है उसे विचिकित्सा कहते हैं । इस प्रकारकी विचिकित्सा के वशीभूत हुआ प्राणी यह विचार करता है कि बालुकणों के ग्रासके समान महान् तपजनित क्लेश और परिश्रमके जनक जो यह कनकावली आदि तप हैं उनसे भविष्य में क्या मुझे कुछ फलसम्पत्ति प्राप्त होगी या नहीं, कारण यह कि किसानों आदिकी क्रियाएँ सफल और निष्फल दोनों प्रकारकी देखी जाती हैं, इत्यादि । इस प्रकार के बुद्धिभ्रम से उस सम्यग्दर्शनकी विराधना होती है । यह सम्यग्दर्शनका तीसरा अतिचार है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि इस प्रकारके बुद्धिभ्रमको शंकासे भिन्न नहीं कहा जा सकता, अतः उससे इसका पृथक् निर्देश करना उचित नहीं है । इसके समाधानमें यह कहा गया है कि वह शंका के अन्तर्गत नहीं हो सकती । इसका कारण यह है कि १. अ कायव्रतते । २. अ ' सर्वदर्शनान्येव कांक्षति' इत्येतावान् पाठो नास्ति । ३ अ सिद्धित । ४. अ प्रति सम्मो प्रतिपादनपराण्यवाह किमस्य । ५. अ कनकोवल्यो आयात्यां ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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