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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः विवरीय सहाणे मिच्छाभावाओ नत्थि केइ गुणा । अभिनिवेस उ कयाइ होइ सम्मत्तहेऊ वि ॥ ८५ ॥ विपरीतश्रद्धाने उक्तलक्षणानां जीवादिपदार्थानामन्यथा श्रद्धाने । मिथ्याभावान्न सन्ति केचन गुणाः, सर्वत्रैव विपर्ययादिति भावः । विपरीतश्रद्धानेऽप्यनभिनिवेशस्तु । एवमेवैतदित्यनध्ययसायस्तु कदाचित्कस्मिश्चित्काले यद्वा कदाचित् न नियमेनैव भवति । सम्यक्त्वहेतुरपि जायते सम्यक्त्वकारणमपि । यथेन्द्र-नागादीनामिति ॥ ८५ ॥ इदं च सम्यक्त्वमतिचाररहितमनुपालनीयमिति अतस्तानाहसम्मत्त सइयारा संका कंखा तहेव वितिमिच्छा । परपासंडपसंसा संथवमाई य नायव्वा || ८६ ॥ [ ८५ - सम्यक्त्वस्य प्राङ्गनिरूपितशब्दार्थस्यातिचारा अतिचरणानि अतिचारा असवनुष्ठान विशेषाः यैः सम्यक्त्वमतिचरति विराधयति वा । ते च शंकादयः । तथा चाह - शंका कांक्षा तथैव विचिकित्सा परपाषण्डप्रशंसा संस्तवादयश्च ज्ञातव्याः | आदिशब्दादनुपबृंहणा स्थिरीकरणादिपरिग्रहः । शंकादीनां स्वरूपं वक्ष्यत्येवेति ॥ ८६ ॥ संसकरणं संका कंखा अन्नन्नदंसणग्गाहो । संतंमि विवितिमिच्छा सिज्झिज्ज न मे अयं अट्ठो ॥८७॥ संशयकरणं शङ्का - भगवदहंत्प्रणीतेषु पदार्थेषु धर्मास्तिकायादिष्वत्यन्त गहनेषु मतिदौर्बल्यात्सम्यगनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः । किमेवं स्यान्नैवमिति । सा पुनद्वभेदा देश सर्वभेदात् । जैसा कि जीवादि तत्त्वोंका स्वरूप कहा गया है, उसके विपरीत श्रद्धान करनेपर मिथ्याभावके कारण कोई भी गुण नहीं होते । किन्तु अनभिनिवेश - विपरीत श्रद्धा के होनेपर भी 'यह इसी प्रकार ही है' ऐसे दुराग्रहरूप अध्यवसायका अभाव - किसी समय या अनियत रूपमें सम्यक्त्वका कारण भी हो जाता है । जैसे - इन्द्र - नागादिकोंके ॥८५॥ आगे सम्यक्त्वके अतिचारोंका निर्देश किया जाता है शंका, कांक्षा, उसी प्रकार विचिकित्सा, परपाषण्डप्रशंसा और संस्तव इत्यादि उस सम्यक्त्व के अतिचार - उसको मलिनित करनेवाले दोष जानना चाहिए। अतिचारसे अभिप्राय ऐसे असदाचरण विशेषोंका है जिनसे उस सम्यक्त्वकी विराधना होती है। आदि शब्दसे यहां अनुपबृंहण एवं अस्थिरीकरण आदि अन्य अतिचारोंकी भी सूचना की गयी है ॥८६॥ अब आगेकी गाथा द्वारा उक्त अतिचारों में प्रथम तीन अतिचारोंका स्वरूप कहा जाता हैपूर्वोक्त जीवादि तत्त्वोंके विषय में सन्देह करनेका नाम शंका है। भिन्न-भिन्न दर्शनों (मतों) के विषय अभिलाषा रखना, यह कांक्षाका लक्षण है । समोचीन पदार्थके विषय में भी जो 'यह अर्थ मुझे सिद्ध होगा या नहीं' इस प्रकारसे फलके विषय में व्यामोह होता है, इसे विचिकित्सा कहा जाता है। विवेचन - भगवान् जिनेन्द्र देवके द्वारा उपदिष्ट पदार्थों में जो धर्मास्तिकाय आदि अत्यन्त गहन पदार्थ हैं उनके विषय में बुद्धिकी दुर्बलतासे ठीक-ठोक निश्चय न हो सकने के कारण 'क्या यह १. अ संथवमादी । २. अ ' बृंहणास्थि -' इत्यतोऽग्रेऽग्रिमगाथायाष्टीकान्तर्गत 'भगवदर्हतप्रणीते -' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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