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________________ ॥१६॥ शीलांगादि रथसंग्रह. ॥१६॥ BareMOREOGROLORD ___ अविरत (उपवासादि विना) नूख्यो रहे, मनवमे सन्लीन, सारा अव्यपणाना अहंकारथी बारहित, अल्पाहारथी छनोदरी करनार, सक्थथी. (एक दाणानी संख्यावमे) तप करनार साधु दूधने पण वर्जी दे (खाय नदि) ॥१॥ खीरं दहिं घयं तिलं, गुडओ गाहि मज विवजं ॥ __मंसं मख्खणवज्जे, महुमविवज्जे भवे दसहा ॥२॥ दीरं दधि घृतं तैलं, गुमोऽवगादिम मद्यपि वर्जम् ॥ ॐ मांसं म्रक्षणं वर्जयेत्, मध्वपि वर्जयेत् नवे दशधा ॥२॥ दूध, दहिं, घी, तेल, गाळ, तळेलां पकवान, मद्य, मांस, माखण, मध था दस विगई (विकृति) ने डोमी दे. ॥२॥ BRBRDARBORDER मा निंदारथना चित्रमा श्रावेली गाथाओना अघरा शब्दोना अर्थ. मोहवसेणं-मोहना वशथी | तिरिय-तिर्यंच (ना) फास-स्पर्श कोह-क्रोध रागवसेणं-गगना वशथी | नारय-नारकी (ना) असण-आहार माण-मान-अहंकार दोसवसेणं-द्वेशना वशथी सद्द-शब्द सन्नाए-संज्ञाबडे माया-कपट देव-देव (ना) रुख-रुप भय-भयनी लोभ-लोभ मणुअ-मनुष्य (ना) रस-रस . मेहुण-मैथुन । ओघ-ओघ भवे-भवने विषे गंध-गंध : परिग्गह-परिग्रह लोग-लोक
SR No.022024
Book TitleShilangadi Rath Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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