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________________ [८] मूल पृ० हिन्दी पृ० मूल पृ० हिन्दी पृ० अलोक सर्वज्ञके द्वारा ज्ञेय होनेपर भी श्रावग्णाभावको अाकाश नहीं कह अलोक ही है ४५५ ६६६ सकते ४६७ ६७७ धर्म और अधर्म लोकव्यापी हैं ४५६ ६६६ शब्द पौद्गलिक है । ४६८ ६७७ अमूर्त होने के कारण इनका अविरोधी अाकाश प्रकृतिका विकार नहीं अवगाह है ४५६ ६६६ शरीर वचन मन और श्वासोच्छ्रास पुद्गलका अवगाह एकप्रदेश पुद्गलके उपकार हैं ४६८ ६७७ आदिमें है शरीरादिके निर्देश-क्रमका कारण ४६८ ६७७ एक प्रदेशमें भी बहुतोंका अवगाह कार्मण शरीर भी पौद्गलिक है ४६६ ६७८ जैसे कि अनेक प्रदीपप्रकाशांका ४५७ ६७० वचन पौद्गलिक हैं ४६६ ६७८ अागम प्रामाण्यसे भी ४५७ ६७० भाववचन भी पुदगलनिमित्तक होनेसे जीवोंका असंख्येय भाग आदिमें पौद्गलिक हैं ४७० ६७८ अवगाह ४५७ ६७० शब्दकी पौद्गगलिकता ४७० ६७६ असंख्यात प्रदेशी लोकमें भी अनन्त मनकी पौद्गलिकता ४७१ ६७६ जीवोंका अवगाह ४५८ ६७० मन अनवस्थित है ४७१ ६७६ प्रदेशों में संकोच विस्तार होनेसे वैशेषिकसम्मत मनोद्रव्यका खण्डन ४७१ ६७६ प्रदीपकी तरह अवगाह अणुमनके आशुसंचारित्वकी प्रदीपकी तरह अनित्यता नहीं श्रालोचना ४७२ ६८० जीवकी शरीरपरिमाणता ४५६ ६७१ विज्ञानरूप मनकी अालोचना ४७३ ६८० मुक्तजीव किंचित् न्यून अन्तिम मन प्रकृतिका विकार नहीं ४७३ ६८१ शरीरप्रमाण है ४५६ ६७१ प्राणापानकी मूर्तिकता ४७३ ६८१ गति और स्थिति धर्म और अधर्म सुख दुःख जीवन और मरण भी द्रव्यका उपकार ४६० ६७२ पुद्गलके ही उपकार ४७४ ६८२ गतिका लक्षण ४६० ६७२ सुखादिके निर्देशक्रमकी सहेतुकता ४७४ ६८२ स्थितिका लक्षण ४६० ६७२ जीवोंका परस्परोपग्रह ४७६ ६८३ उपग्रह और उपकारमें भेद ४५२ ६७३ वर्तना परिणाम क्रिया आदि कालअाकाशसे ही गतिस्थिति माननेपर द्रव्यके उपकार ४७६ ६८३ लोकालोक विभाग नहीं होगा ४६२ ६७३ वर्तनाका आनुमानिकत्व ४७७ ६८४ अाकाश ही गति और स्थितिमें श्रादित्यगतिनिमित्तक वर्तना नहीं ४७७ ६८४ उपकारक नहीं हो सकता ४६३ ६७३ श्राकाशप्रदेशनिमित्तक वर्तना नहीं ४७७ ६८४ अनुपलब्धिसे प्रभाव नहीं किया जा परिणाम परिणामीसे भिन्नाभिन्न है ४७८ ६८४ ... सकता - ४६४ ६७४ बीज और अंकुरका परस्पर परिणामअतीन्द्रिय पदार्थ सभी वादी मानते हैं ४६५ ६७४ परिणामीभाव ४७६ ६८५ गति और स्थिति अदृष्टहेतुक नहीं हैं ४६५ ६७५ क्षणिकपक्षमें परिणामपरिणामीभाव आकाशका उपकार अवगाह है ४६६ ६७६ नहीं ४८० ६८६ जीव और पुद्गलमें मुख्य अवगाह है ४६७ ६७६ ध्रौव्यैकान्तमें भी परिणाम नहीं ४८० ६८६ अलोकाकाशमें भी यह लक्षण है ४६७ ६७६ परत्वापरत्वका स्वरूप ४८१ ६८७ खरविषाणकी भी बुद्धि और शब्दरूपसे द्विविध काल ४८१ ६८७ सिद्धि ४६७ ६७७ त्रिविध काल ४८२ ६८७
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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