SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय-सूची पाँचवाँ अध्याय मूल पृ० हिन्दी पृ० मूल पृ० हिन्दी पृ० अजीव अस्तिकायोंका निर्देश ४३१ ६५३ अदृष्टसे क्रिया नहीं ४४७ ६६३ अजीव और कायका सामानाधिकरण्य ४३१ ६५३ ।। पुद्गलों में क्रियाकी सिद्धि ४४८ ६६४ काय अर्थात् बहुप्रदेशी ४३२ ६५३ क्रियाके दो भेद ४४८ ६६४ धर्म अादि संज्ञाएँ, रूढ़ सांकेतिक हैं ४३३ ६५४ क्रिया द्रव्यको ही पर्याय है ४४८ ६६४ धर्मादि संज्ञाएँ, क्रियानिमित्तक भी क्रियावत्त्वसे अनित्यत्वका प्रसंग नहीं ४४८ उनकी व्युत्पत्ति ४३४ ६५४ धर्म अधर्म और एक जीव असंख्यधर्मादिके निर्देशक्रमका प्रयोजन ४३४ ६५५ प्रदेशी है ४४४ ६६४ अाकाश और अन्य द्रव्योंमें सर्वज्ञ अनन्तको अनन्त रूपसे श्राधाराधेयभाव ४३५ ६५५ जानता है ४४६ ६६४ ये द्रव्य हैं ४३६ ६५५ प्रदेशका लक्षण ४४६ ६६४ द्रव्यकी व्युत्पत्ति प्रदेशवत्त्व होनेपर भी द्रव्यकी अखण्डता ४४० ६६५ द्रव्यत्वके समवायसे द्रव्य नहीं ४३६ ६५६ प्रदेश-कल्पना औपचारिक नहीं ४५० ६६५ गुणसन्द्रावरूप द्रव्य नहीं ४३६ ६५८ जीवके चलाचल प्रदेश ४४१ ६६६ एकान्तवादियों के मतमें 'द्रव्यं भव्ये' संसारी जीव व्यवहारसे सावयव हैं ४५२ ६६६ नहीं हो सकता ४४१ ६५६ आकाशके अनन्त प्रदेश ४५२ ६६६ जीव भी द्रव्य है ४४५ ६५६ अनन्त भी सर्वज्ञ ज्ञानका अनन्त रूपसे जीवत्वके समवायसे जीव नहीं ४४१ ६६० गम्य है ४५२ ६६७ वैशेषिककल्पित नौ द्रव्योंका अन्तर्भाव ४४२ ६६० सभी 'अनन्त' मानते हैं ४५२ ६६७ जीवबहुत्व बतानेके लिए बहुवचन अनन्तको अज्ञेय माननेपर सर्वज्ञाभाव दिया है हो जायगा ४५२ ६६७ जीवादि द्रव्य नित्य अवस्थित और पुद्गलों के संख्यात असंख्यात और अरूपी हैं अनन्तप्रदेश ४५३ ६६७ नित्य अर्थात् ध्रौव्ययुक्त ४४३ ६६१ अनन्त कहनेसे अनन्तानन्त भी वृत्तिकारके पाँच द्रव्यों के उल्लेखका परिगृहीत है ४५३ ६६७ तात्पर्य ४४४ ६६१ असंख्यात प्रदेशी लोकमें भी अनन्तका पुद्गल द्रव्य रूपी हैं ४४४ ६६१ अवगाह ४५३ ६६७ मूर्तिकका लक्षण ४४४ ६६१ अणुके अन्य प्रदेश नहीं ४५३ ६६७ बहुत्वसूचनके लिए बहुवचन .. ४४५ ६६२ अणु अप्रदेशी नहीं किन्तु एकप्रदेशी ४५४ ६६८ आकाशपर्यन्त. एक एक द्रव्य है ४४५ ६६२ लोकाकाशमें सब द्रव्योंका अवगाह ४५४ ६६८ आकाशादि निष्क्रिय हैं ४४६ ६६२ अाकाश स्वप्रतिष्ठित है ४५४ ६६८ क्रियाका लक्षण ४४६ ६६२ व्यवहारसे ही सब द्रव्योंमें निष्क्रिय होनेपर भी इनमें उत्पादादि हैं ४४६ ६६२ आधाराधेय भाव है ४५४ ६६८ जीवमें क्रियाकी सिद्धि ४४७ ६६३ लोकका स्वरूप ४५५ ६६८
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy