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________________ १०९] दसवाँ अध्याय ८०७ संयमपालन विशुद्धि स्थान आदिको उत्तरोत्तर चढ़ता हुआ, आर्त रौद्र ध्यानसे रहित होकर, धर्म ध्यानकी विजयसे समाधि बल प्राप्त करके, पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क मेंसे किसी एक शुक्ल ध्यानको ध्याता हुआ, अनेकविध ऋद्धियोंके मिलनेपर भी उनमें अनासक्तचित्त हो, पूर्वोक्त क्रमसे मोहादिका क्षय कर, सर्वज्ञ ज्ञानलक्ष्मीका अनुभव करता है। फिर शेष कर्मोको ईंधनरहित अग्निकी तरह क्षय करता हुआ, पूर्वशरीरको छोड़कर और नये शरीरको उत्पत्तिका कारण न होनेसे जन्म न ले अशरीरी होता हुआ, संसारदुःखोंसे परे आत्यन्तिक ऐकान्तिक निरुपम और निरतिशय निर्वाण सुख प्राप्त करता है। यही तत्त्वार्थ भावनाका फल है। कहा भी है "इस तरह तत्त्व परिज्ञान करके विरक्त आत्मा जब आस्रव रहित हो नवीन कर्मसन्ततिका उच्छेद कर देता है और पूर्वोक्त कारणोंसे पूर्वार्जित कौका क्षय कर, संसारबीज मोहनीयको पूर्ण रूपसे नष्ट कर देता है । उसके बाद अन्तराय ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये तीनों कर्म एकसाथ नष्ट हो जाते हैं। जैसे गर्भसूची-मस्तकछत्रके नष्ट होते ही तालवृक्ष नष्ट हो जाता है उसी तरह मोहनीयके क्षय होते ही शेष घातिया कर्म नाशको प्राप्त हो जाते हैं। इसके बाद चार घातिया कोका नाश कर यथाख्यात संयमको प्राप्त करनेवाला मूल बन्धनोंसे रहित स्नातक परमेश्वर हो जाता है । शेष कर्मोंका उदय रहनेपर भी वह शुद्ध बुद्ध निरामय सर्वज्ञ सर्वदर्शी केवली जिन हो जाता है ।।१-६॥ - जैसे जली हुई अग्नि इंधन आदि उपादान न रहनेपर बुझ जाती है उसी तरह समस्त कोका क्षय होनेपर आत्मा निर्वाणको प्राप्त हो जाता है। जैसे बीजके अत्यन्त जल जानेपर अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी तरह कर्मबीजके जल जानेपर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता। इसके बाद ही वह पूर्वप्रयोग असङ्गत्व बन्धच्छेद और ऊर्ध्वगौरव धर्मके कारण लोकान्त तक ऊर्ध्वगमन करता है। जैसे कुम्हारके चक्र या वाणमें पूर्वप्रयोगवश क्रिया होती रहती है उसी तरह सिद्ध गति मानी गयी है। जिस प्रकार मिट्टीका लेप छूट जानेपर पानोमें डूबी हुई तूंबड़ी ऊपर आ जाती है उसी तरह कर्मलेपके हट जानेपर स्वाभाविक सिद्ध गति होती है। एरण्डबीज यन्त्र तथा पेला आदिमें जिस प्रकार बन्धच्छेद होनेपर ऊर्ध्वगति होती है उसी तरह कर्मबन्धनका विच्छेद होनेपर सिद्ध गति होती है । जीव ऊर्ध्वगौरवधर्मा तथा पुद्गल अधोगौरवधर्मा होते हैं यह बताया गया है। जिस प्रकार लोष्ठ वायु और अग्निशिखा स्वभावसे ही नीचे तिरछे और ऊपर को जाती है उसी तरह आत्माकी स्वभावतः ऊर्ध्व गति होती है। जीवोंमें जो विकृतगति पाई जाती है वह या तो प्रयोगसे है या फिर कर्मों के प्रतिघातसे है। जीवोंके कर्मवश नीचे तिरछे और ऊपर भी गति होती है पर क्षीणकर्मा जीवोंकी स्वभावसे ऊर्ध्वगति ही होती है।॥७-१६।। जिस प्रकार परमाणुद्रव्यमें लोकान्तगामिनी क्रियाकी उत्पत्ति आरम्भ और समाप्ति युगपत् होती है उसी तरह संसारक्षयसे सिद्धकी गति होती है। जिस प्रकार प्रकाश और अन्धकारकी उत्पत्ति और विनाश एक साथ होते हैं उसी तरह निर्वाणकी उत्पत्ति और कर्मका विनाश भी युगपत् होते हैं ॥१७-१८॥ लोक शिखरपर अतिशय मनोज्ञ तन्वी सुरभि पुण्या और परमभासुरी प्राग्भारा नामकी पृथिवी है। यह मनुष्यलोकके समान विस्तारवाली शुभ और शुक्ल छपके समान है। लोकान्तमें इस पृथ्वीपर सिद्ध विराजमान होते हैं। वे केवलज्ञान केवलदर्शन सम्यक्त्व और सिद्धत्वमें तपसे उपयुक्त हैं और जियाका कारण न होनेसे निष्यि हैं ॥१९-२१॥ 'उससे भी ऊपर उनकी गति क्यों नहीं होती?' इस प्रश्नका सीधा समाधान है कि आगे धर्मास्तिकाय नहीं है, वही गतिका कारण है ॥२२॥
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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