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________________ गुणें हैं। तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [ १०९ एकान्तर गतिमें अल्पबहुत्व है-सबसे कम तिर्यग्योनिसे मनुष्य होकर सिद्ध होनेवाले हैं। मनुष्ययोनिस मनुष्य होकर सिद्ध होनेवाले संख्यातगुणें हैं। नरक योनिस आकर मनुष्य होकर सिद्ध होनेवाले संख्येयगुणें हैं। वेदकी दृष्टिस-प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा अवेद अवस्थामें ही सिद्धि होती है। भूतपूर्वनयकी अपेक्षा सबसे कम नपुंसकवेदसिद्ध हैं, स्त्रीवेदसिद्ध संख्येयगुणें हैं और पुंवेदसिद्ध संख्येयगुणें हैं। तीर्थानुयोगसे तीर्थंकरसिद्ध कम हैं और इतरसिद्ध संख्येयगुणें हैं। चारित्रानुयोगसे-प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा निर्विकल्प चारित्रसे सिद्धि होती है अतः अल्पवहुत्व नहीं है । भूतपूर्वनयकी दृष्टिसे अनन्तर चारित्रकी अपेक्षा सभी यथाख्यात चारित्रसे सिद्ध होते हैं अतः अल्पबहुत्व नहीं हैं। व्यवधानकी दृष्टि से पंच चारित्रसिद्ध कम हैं और चतुश्चारित्रसिद्ध संख्येयगुणें हैं। - प्रत्येकबुद्धबोधितबुद्धानुयोगसे-प्रत्येकबुद्ध कम हैं और बोधितबुद्ध संख्येय ज्ञानानुयोगसे-प्रत्युत्पन्ननयकी दृष्टिसे केवली ही सिद्ध होते हैं, अतः अन्तर नहीं है । पूर्वभावप्रज्ञापननयसे द्विज्ञानसिद्ध सबसे कम हैं, चतुर्ज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं, त्रिज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं । मतिश्रुतमनःपर्ययज्ञानसिद्ध सबसे कम हैं, मतिश्रुतज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं, मतिश्रुतअवधिमनःपर्ययज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं और मतिश्रुतअवधिज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं। ___अवगाहनानुयोग से-जघन्य अवगाहनासिद्ध सबसे कम हैं, उत्कृष्ट अवगाहनासिद्ध संख्येयगुणें हैं। यवमध्यसिद्ध संख्येयगुणें हैं, अधोयवसिद्ध संख्येयगुणें हैं। उपरि यवसिद्ध विशेषाधिक हैं। ___ अनन्तरानुयोगसे-आठ समयानन्तरसिद्ध सबसे कम हैं । सातसमयअनन्तरसिद्ध संख्येयगुणें हैं। इस तरह दो समयअनन्तरसिद्ध तक समझना चाहिये । सान्तरोंमें छह माहके अन्तरसे सिद्ध होनेवाले सबसे कम हैं, एकसमयान्तरसिद्ध संख्येयगुणें हैं। यवमध्यान्तर सिद्ध संख्येयगुणे हैं । अधोयवमध्यान्तरसिद्ध संख्येयगुणे और उपरियवमध्यान्तरसिद्ध विशेषाधिक हैं। संख्यानुयोगसे-१०८ सिद्ध होनेवाले सबसे कम हैं, १०८से लेकर ५० तक सिद्ध होनेवाले अनन्तगुणें हैं, ४९ से २५ तक सिद्ध होनेवाले असंख्येयगुणें हैं, चौबीससे एक तक सिद्ध होनेवाले संख्येयगुणें हैं। ___ इस तरह निसर्ग और अधिगमसे उत्पन्न होनेवाला तत्त्वार्थश्रद्धानरूप, शंकादि अतीचारोंसे रहित, प्रशम संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्यसे जिसका लक्षण प्रकट है, उस विशुद्ध सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध सम्यग्ज्ञानको प्राप्त कर, निक्षेप प्रमाण निर्देशादि सत्संख्यादि अनुयोगोंसे जीवोंके पारिणामिक औदयिक औपक्षमिक क्षायोपशमिक और क्षायिक भावोंके स्वतत्त्वको जानकर, चेतन-अचेतन भोगसाधनों के उत्पत्ति विनाशस्वभावको जानकर, विरक्त वितृष्ण त्रिगुप्तियुक्त पञ्चसमितिसहित दशलक्षणधर्मानुष्ठान और उसका फल देखकर निर्वाण प्राप्तिकी दिशामें श्रद्धासंवेग भावना आदिकी वृद्धिसे आत्माको भावित कर, अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनसे चित्तको स्थिरकर, आत्माको चारों ओरसे संवरयुक्त करके, आस्रवशून्य होनेसे अभिनव कर्मोंके उपचयको नष्ट करता हुआ, परीषहजय बाह्य आभ्यन्तर तपोऽनुष्ठान और अनुभवसे सम्यग्दृष्टि विरत आदि जिन पर्यन्त परिणामविशुद्धि अध्यवसानविशुद्धि आदि स्थानोंको प्राप्त करके, असंख्येयगुणोत्कर्षकी प्राप्तिसे पूर्वोपचित कर्मोंकी निर्जरा करता है । वह सामायिक आदि सूक्ष्मसाम्परायपर्यन्त संयमविशुद्धि स्थानोंको उत्तरोत्तर प्राप्त करके, पुलाकादि निम्रन्थोंके
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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