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________________ ७९२ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९।३४-३६ क्योंकि निदान अप्राप्तकी प्राप्ति के लिए होता है, इसमें पारलौकिक विषयसुखकी गृद्धिसे अनागत अर्थप्राप्तिके लिए सतत चिन्ता चलती है। - ये चारों आर्तध्यान कृष्ण नील और कापोतलेश्यावालोंके होते हैं। ये अज्ञानमूलक, तीव्रपुरुषार्थजन्य, पापप्रयोगाधिष्ठान, नानासंकल्पोंसे आकुल, विषयतृष्णासे परिव्याप्त, धर्माश्रयपरित्यागी, कषायस्थानोंसे युक्त, अशान्तिवर्धक, प्रमादमूल, अकुशलकर्मके कारण, कटुकफलवाले असाताके बन्धक और तियच गतिमें ले जानेवाले हैं। तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥३४॥ ये ध्यान अविरत अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि पर्यन्त, देशविरत-संयतासंयत और प्रमत्तसंयत-पन्द्रह प्रकारके प्रमादोंसे युक्त संयतोंके होते हैं। ६१. प्रमत्तसंयतोंके प्रमादके तीव्र उद्रेकसे निदानको छोड़कर बाकीके तीन आर्तध्यान कभी-कभी हो सकते हैं। हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३५॥ ११-४ हिंसा आदिको निमित्त लेकर ध्यानकी धारा चलती है अतः हिंसादिका हेतु रूपसे निर्देश किया है। हिंसादिके आवेश और परिग्रह आदिके संरक्षणके कारण देशविरतको भी रौद्रध्यान होता है । पर यह नरकादि गतियोंका कारण नहीं होता; क्योंकि वह सम्यग्दर्शनके साथ है। संयतके रौद्रध्यान नहीं होता; क्योंकि रौद्र भावों में संयम रह ही नहीं सकता। हिंसा नन्द अनृतानन्द स्तेयानन्द और परिग्रहानन्द ये चारों रौद्रध्यान अतिकृष्ण नील और कापोतलेइयावालोंके होते हैं। ये प्रमादाधिष्ठान और नरक गतिमें ले जानेवाले हैं। आत्मा इन अशुभ ध्यानोंसे संक्लिप्ट होकर तप्त लौहपिण्ड जैसे जलको खींचता है उसी तरह कर्मोंको खींचता है। धर्म्यध्यानका वर्णन आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ॥३६॥ आज्ञाविचय अपायविचय विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार धर्म्य ध्यान हैं। ६१-३ विचय विवेक और विचारणा सभी एकार्थक हैं। आज्ञा आदिके विचयके लिये जो स्मृतिसमन्वाहार-चिन्तनधारा है वह धर्म्य ध्यान है। $४-५. इस काल में उपदेष्टाका अभाव है, बुद्धि मन्द है, काँका तीव्र उदय है, पदार्थ सूक्ष्म हैं, उनकी सिद्धिके लिये हेतु और दृष्टान्त मिलते नहीं हैं, अतः सर्वज्ञप्रणीत आगमको प्रमाण मानकर 'यह ऐसा ही है, जिनेन्द्र अन्यथावादी नहीं हो सकते' इस प्रकार गहन पदार्थोंका श्रद्धान करके पदार्थोंका निश्चय करना आज्ञाविचय है। अथवा, स्वसमय परसमयके रहस्यके जानकार और विशुद्ध सम्यग्दृष्टि वक्ताके द्वारा सर्वज्ञप्रणीत अतिसूक्ष्म धर्मास्तिकाय आदि पदाआँका दृढ़ निश्चय करके स्वसिद्धान्ताविरोधी हेतु प्रमाण नय दृष्टान्त आदिकी सम्यक योजनासे परवादियोंके तर्कजालका भेदन कर उन्हें अपने मतके प्रति सहिष्णु बनाना और ऐसी धर्म कथा करना जिससे श्रुतकी प्रभावना हो, वह सर्वज्ञकी आज्ञाकी प्रकाशक होनेसे आज्ञाविचय धर्म्य ध्यान है। ६-७. मिथ्यादर्शनसे जिनके ज्ञाननेत्र अन्धकाराच्छन्न हो रहे हैं उनकी आचार विनय अप्रमाद आदि विधियाँ अविद्याबहुल होनेसे संसारको ही बढ़ाती हैं। जैसे बलवान भी जात्यन्ध सत्पथसे प्रच्युत होकर कुशल मार्गदर्शकके बताये पथ पर न चलनेके कारण ऊँचे नीचे कंकरीले पथरीले जंगली मार्ग में भटक जाते हैं, वे प्रयत्न करने पर भी सन्मार्ग को नहीं पा पाते उसी तरह सर्वज्ञत्रणीत आज्ञासे विमुख मोक्षार्थी सम्यक् पथका ज्ञान न होनेसे सन्मार्ग से दूर ही भटक रहे हैं, इस प्रकार सन्मार्गके अपायका चिन्तन अपायविचय ध्यान है । अथवा, मिथ्या
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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