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________________ ७९१ ९।२८-३३] नयाँ अध्याय बाह्य चिन्ताओंसे निवृत्ति होती है। एक दिन या माहभर तक जो ध्यानकी बात सुनी जाती है वह ठीक नहीं है। क्योंकि इतने समयतक एक ही ध्यान रहनेसे इन्द्रियोंका उपघात ही हो जायगा। २३-२४. श्वासोच्छ्वासके निप्रहको ध्यान नहीं कहते ; क्योंकि इसमें श्वासोच्छ्वास रोकनेकी वेदनासे शरीरपात होनेका प्रसंग है । अतः ध्यानावस्थामें श्वासोच्छवासका प्रचार स्वाभाविक होना चाहिये । इसी तरह समय-मात्राओंका गिनना भी ध्यान नहीं है क्योंकि इसमें एकाग्रता नहीं है। गिनती करने में व्यग्रता स्पष्ट ही है। २५-२७. ध्यानकी सिद्धि तथा विधि विधान बतानेके लिये ही गुप्ति समिति आदिके प्रकरण हैं। जैसे धान्य के लिये बनाई गई तलैयासे धान भी सींचा जाता है पानी भी पिया जाता है और आचमन भी किया जाता है उसी तरह गुप्ति आदि संवरके लिये भी हैं और ध्यानकी भूमिका बनानेके लिये भी। ध्यानप्राभृत आदि प्रन्थोंमें ध्यानके समस्त विधिविधानोंका कथन है यहाँ तो उसका केवल लक्षण ही किया है। ध्यानके भेद आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥२८॥ ६१-४. ऋत-दुःख अथवा अर्दन-आर्ति, इनसे होनेवाला ध्यान आर्तध्यान है। रुलानेवालेको रुद्र-क्रूर कहते हैं, रुद्रका कर्म या रुद्र में होनेवाला ध्यान रौद्रध्यान है। धर्मयुक्त ध्यान धर्म्य ध्यान है । जैसे मैल हट जानेसे वन शुचि होकर शुक्ल कहलाता है उसी तरह निर्मलगुणरूप आत्मपरिणति भी शुक्ल है। इनमें आदिके दो ध्यान अपुण्यास्रवके कारण होनेसे अप्रशस्त हैं और शेष दो कर्मनिर्दहनमें समर्थ होनेसे प्रशस्त हैं। परे मोधहेतू ॥२९॥ १-३. द्विवचननिर्देश होनेसे अन्तिम शुक्ल और उसके समीपवर्ती धर्मध्यानका पर शब्दसे प्रहण होता है । व्यवहितमें भी परशब्दका प्रयोग होता है। धर्म्य और शुक्लध्यान मोक्षके हेतु हैं और पूर्व के दो ध्यान संसारके हेतु, तीसरा कोई प्रकार नहीं है। आर्तध्यानका लक्षण आर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥३०॥ ६१-२. विष कण्टक शत्रु और शस्त्र आदि बाधाकारी अप्रिय वस्तुओंके मिल जाने पर 'ये मुझसे कैसे दूर हों' इस प्रकारको सबल चिन्ता आर्त है । स्मृतिको दूसरे पदार्थकी ओर न जाने देकर बार बार उसीमें लगाये रखना समन्वाहार है। _ विपरीतं मनोज्ञस्य ॥३१॥ ६१. विपरीत अर्थात् मनोज्ञवस्तुका वियोग होनेपर उसकी पुनः प्राप्तिके लिए जो अत्यधिक चिन्ताधारा चलती है वह भी आर्त है। वेदनायाश्च ॥३२॥ $ १-२. वेदना अर्थात् दुःखवेदनाके होनेपर उसके दूर करनेके लिए धैर्य खोकर जो अंगविक्षेप शोक आक्रन्दन और अश्रुपात आदिसे युक्त विकलता और चिन्ता होती है वह वेदनाजन्य आर्तध्यान है। निदानं च ॥३३॥ ६१. प्रीतिविशेष या तीव्र कामादिवासनासे आगेके भवमें भी कायछेशके बदले विषयसुखोंकी आकांक्षा करना निदान है। विपरीवं मनोमस्य सूत्रसे निदानका संग्रह नहीं होता;
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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