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________________ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९।२३-२४ दुश्चिन्ता मलोत्सर्ग मूत्रका अतिचार महानदी और महाअटवीके पार करने आदिमें व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । बार-बार प्रमाद, बहुदृष्ट अपराध, आचार्यादिके विरुद्ध वर्तन करना तथा विरुद्धदृष्टि-सम्यग्दर्शन की विराधना होनेपर क्रमशः अनुपस्थापन और पारंचिक विधान किया जाता है । अपकृष्ट आचार्यके मूलमें प्रायश्चित्त ग्रहण कराना अनुपस्थापन है। तीन आचार्योंतक एक आचायेसे अन्य आचायेके पास भेजना पारंचिक है। ये नवों प्रायश्चित्त देश काल शक्ति और संयम आदिके अविरोध रूपसे अपराधके अनुसार दोषप्रशमनके लिये औषधिकी तरह ग्रहण करने चाहिये । यद्यपि जीवके परिणाम असंख्येयलोकप्रमाण हैं और अपराध भी उतने ही हैं पर प्रायश्चित्त तो उतने प्रकारके नहीं हो सकते। अतः व्यवहारनयसेवर्गीकरण करके प्रायश्चित्तोंका स्थूल निर्देश किया है। विनयके भेद ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥२३॥ ६१. विनयकी अनुवृत्ति करके प्रत्येकसे उसका सम्बन्ध कर देना चाहिये-ज्ञानविनय दर्शन-विनय चारित्र-विनय और उपचार-विनय आदि । २. आलस्यरहित हो देशकालादिकी विशुद्धिके अनुसार शुद्धचित्तसे बहुमानपूर्वक यथाशक्ति मोक्षके लिये ज्ञानग्रहण अभ्यास और स्मरण आदि करना ज्ञानविनय है। ६३. जिनेन्द्रभगवान्ने सामायिक आदि लोकबिन्दुसारपर्यन्त श्रुतमहासमुद्र में पदार्थोंका जैसा उपदेश दिया है उसका उसी रूपसे श्रद्धान करने आदिमें निःशंक आदि होना दर्शनविनय है। ६४. ज्ञान और दर्शनशाली पुरुषके पाँच प्रकारके दुश्चर चारित्रोंका वर्णन सुनकर रोमांच आदिके द्वारा अन्तर्भक्ति प्रकट करना प्रणाम करना मस्तकपर अंजलि रखकर आदर प्रकट करना और उसका भावपूर्वक अनुष्ठान करना चारित्रविनय है। ६५-६. पूज्य आचार्यादिको सामने देखकर खड़े हो जाना, उनके पीछे चलना अंजलि जोड़ना और वन्दना आदि करना उपचारविनय हैं। यदि आचार्य परोक्ष हैं तब भी उनके प्रति अंजलि धारण करना, उनके गुणोंका संकीर्तन अनुस्मरण और मनवचनकायसे उनकी आज्ञाका पालन करना उपचारविनय है। ६७. ज्ञानलाभ आचारविशुद्धि और सम्यगआराधना आदिकी सिद्धि विनयसे होती है और अन्तमें मोक्षसुख भी इसीसे मिलता है, अतः विनयभाव अवश्य ही रखना चाहिये। वैयावृत्त्यके भेदआचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसङ्घसाधुमनोज्ञानाम् ॥२४॥ ६१-२. वैयावृत्त्यकी अनुवृत्ति करके उसका आचार्यवैयावृत्त्य आदि रूपसे प्रत्येकके साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिये। कामचेष्टा या अन्य द्रव्योंसे व्यावृत्त पुरुषका भाव या कर्म वैयावृत्त है। ३-१४. जिन सम्यग्ज्ञानादि गुणोंके आधारभूत महापुरुषसे भव्यजीव स्वर्गमोक्षसुखदायक व्रतोंको धारणकर आचरण करते हैं वे आचार्य हैं। जिन व्रतशीलभावनाशाली महानुभावके पास जाकर भव्यजन विनयपूर्वक श्रुतका अध्ययन करते हैं वे उपाध्याय हैं। मासोपवास आदि तपोंको तपनेवाले तपस्वी हैं । श्रुतज्ञानके शिक्षणमें तत्पर और सतत व्रतभावनामें निपुण शैक्ष हैं । जिनका शरीर रोगाक्रान्त है वे ग्लान हैं । स्थविरोंकी सन्तति गण हैं । दीक्षा देनेवाले आचार्यकी शिष्य-परम्परा कुल है । चतुर्वर्णश्रमणोंके समूहको संघ कहते हैं । चिरप्रव्रजित पुराने साधक साधु हैं । अभिरूपको मनोज्ञ कहते हैं । अथवा, लोकमें जो विद्वान् वाग्मी महाकुलीन आदि रूपसे
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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