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________________ २१] सातवाँ अध्याय गमन करता है वह अतिथि है। अथवा, जिसके आनेकी तिथि निश्चित न हो वह अतिथि है। अतिथिके लिए संविभाग-दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है। १२-१३. 'व्रत' शब्द प्रथम सूत्र में है पर गौण होनेसे उसका यहाँ सम्बन्ध नहीं किया जा सकता। 'व्रतसम्पन्न' शब्दका सम्बन्ध दिग्विरतिव्रतसम्पन्न देशविरतिव्रतसम्पन्न आदि रूपसे प्रत्येकसे कर देना चाहिए । ६१४-१८. जिनका बचाव नहीं किया जा सकता ऐसे क्षुद्र जन्तुओंसे दिशाएँ व्याप्त रहती हैं अतः उनमें गमनागमनकी निवृत्ति करनी चाहिए। दिशाओंका परिमाण पर्वत आदि प्रसिद्ध चिह्नोंसे तथा योजन आदिकी गिनतीसे कर लेना चाहिए । यद्यपि दिशाओंके भागमें गमन न करनेपर भी स्वीकृत क्षेत्रमर्यादाके कारण पापबन्ध होता है फिर भी दिग्विरतिका उद्देश्य निवृत्तिप्रधान होनेसे बारक्षेत्रमें हिंसादिकी निवृत्ति करनेके कारण कोई दोष नहीं है । जो पूर्णरूपसे हिंसादिनिवृत्ति करने में असमर्थ है पर उस सकलविरतिके प्रति आदरशील है वह श्रावक जीवन-निर्वाह हो या न हो, अनेक प्रयोजन होनेपर भी स्वीकृत क्षेत्रमर्यादाको नहीं लाँघता अतः हिंसानिवृत्ति होनेसे वह व्रती है। किसी परिग्रही व्यक्ति को 'इस दिशामें अमुक जगह जानेपर बिना प्रयत्नके मणि मोती आदि उपलब्ध होते हैं। इस तरह प्रोत्साहित करनेपर भी दिखतके कारण बाहर जानेकी और मणि मोतीकी सहजप्राप्तिकी लालसाका निरोध होनेसे दिखत श्रेयस्कर है। अहिंसाणुव्रती भी परिमित दिशाओंसे बाहर मन वचन काय कृत कारित और अनुमोदना सभी प्रकारोंके द्वारा हिंसादि सर्वसावधोंसे विरक्त होता है अतः वहाँ उसके महाव्रत ही माना जाता है। १९. इसीतरह देशविरतिव्रत होता है। मैं इस घर और तालाबके मध्य भागको छोड़कर अन्यत्र नहीं जाऊँगा।' इसतरह देशव्रत लिया जाता है। मर्यादाके बाहिरी क्षेत्रमें इसे भी महाव्रत कहते हैं । दिग्विरति यावन्नीवन-सर्वकालके लिये होती है जब कि देशव्रत शक्त्यनुसार नियतकालके लिए होता है। 5२०. अनर्थदण्ड पाँच प्रकारका है। 'दसरेका जय पराजय वध बन्ध अंगच्छेद धनहरण आदि कैसे हो' यह मनसे चिन्तन करना अपध्यान है । क्लेशवणिज्या तिर्यगवणिज्या वधकोपदेश और आरम्भोपदेश आदि पापोपदेश हैं । इस देशमें दास दासीसस्ते मिलते हैं, उन्हें अमुक देशमें बेचनेपर प्रचुर अर्थलाभ होगा' इत्यादि कहना क्लेशवणिज्या है। गाय भैंस आदि पशुओंके व्यापारका मार्ग बताना तिर्यग्वणिज्या है।जाल डालनेवाले पक्षी पकड़नेवाले तथा शिकारियोंको पक्षी मृग सुअर आदि शिकारके योग्य प्राणियोंका पता आदि बताना वधकोपदेश है। आरम्भकार्य करनेवाले किसान आदिको पृथिवी जल अग्नि और वनस्पति आदिके आरम्भके उपाय बताना आरम्भोपदेश है। तात्पर्य यह कि हर प्रकारके पापवर्धक उपदेश पापोपदेश हैं । प्रयोजनके बिना ही वृक्ष आदिका काटना, भूमिको कूटना, पानी सींचना आदि सावद्यकर्म प्रमादाचरित हैं । विष शस्त्र अग्नि रस्सी कसन और दंड आदि हिंसाके उपकरणोंका देना हिंसादान है। हिंसा या काम आदिको बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओंका सुनना और सिखाना आदि व्यापार अशुभश्रुति है। इन अनर्थदंडोंसे विरक्त होना अनर्थदंडविरतिव्रत है। २१. पहिले कहे गये दिग्नत और देशव्रत तथा आगे कहे जानेवाले उपभोगपरिभोगपरिमाणब्रतमें स्वीकृत मर्यादा में भी निरर्थक गमन आदि तथा विषयसेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेकनिवृत्तिकी सूचना देने के लिए बीचमें अनर्थदण्डविरतिका ग्रहण किया है। ६२२-२४. जितने काल तथा जितने क्षेत्रका परिमाण सामायिकमें निश्चित किया जाता है उसमें स्थित सामायिक करनेवाले के स्थूल और सूक्ष्म हिंसा आदिसे निवृत्ति होनेके कारण महाव्रतत्व समझना चाहिए। यद्यपि सामायिकमें सर्वसावधनिवृत्ति हो जाती है फिर भी संयमघाती चारित्रमोह कर्मके उदयके कारण इसे संयत नहीं कह सकते। इसे 'महाव्रती' तो उपचारसे
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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