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________________ ७३४ तत्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [ २०-२१ १-२. आश्रयार्थियों के द्वारा जो स्वीकार किया जाय वह अगार-घर है। यहाँ चारित्रमोहके उदयसे घरके प्रति अनिवृत्त परिणामरूप भावागार विवक्षित है । अतः भावागारी व्यक्ति घर छोड़कर यदि किसी कारणवश वनमें भी रहता है तो वह अगारी ही है और विषयतृष्णाओंसे निवृत्त मुनि यदि शून्य घर मन्दिर आदिमें भी बस जाता है तो भी वह अनगारी है। ६३-४. जैसे घरके एक कोने या नगरके एक देशमें रहनेवाला भी व्यक्ति नगरवासी कहा जाता है उसीतरह सफल व्रतोंको धारण न कर एकदेश व्रतोंको धारण करनेवाला भी भी नैगम संग्रह और व्यवहारनयोंकी अपेक्षा व्रती कहा जायगा। जैसे बत्तीस हजार देशोंके अधिपतिमें प्रयुक्त होनेवाला 'राजा' शब्द एक देश या आधे देशके अधिपतिमें भी प्रयुक्त होता है, वह भी 'राजा' कहलाता है उसी तरह अठारह हजार शील और चौरासी लाख गुणोंके धारक संपूर्णव्रती अनगारमें प्रयुक्त होनेवाला भी 'व्रती' शब्द अणुव्रतधारियोंमें भी प्रयुक्त होता है। उन्हें भी व्रती कहते हैं। अणुव्रतोज्गारी ॥२०॥ अणुव्रतोंका धारक अगारी है। ६१-५. समस्त सावद्यकी निवृत्ति न होनेसे अणुव्रत कहे जाते हैं। अहिंसाणुव्रती दो इन्द्रिय आदि त्रसजीवोंकी हिंसासे विरक्त होता है। सत्याणुव्रती स्नेह द्वेष और मोहके उद्रेकसे असत्य कथनमें प्रवृत्ति नहीं करता । अचौर्याणुव्रती अन्यपीडाकर और राजभय आदिसे अवश्य ही परित्यक्त जो अदत्त है, उससे निवृत्त होता है। उपात्त या अनुपात्त परस्त्रीमात्रसे विरक्त होना चौथा ब्रह्मचर्य-अणुव्रत है । धन-धान्य खेत आदि परिग्रहोंका स्वेच्छासे परिमाण कर लेना परिप्रहपरिमाणाणुव्रत है। दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोग परिमाणातिथिसंविभागवतसंपन्नश्च ॥२१॥ गृही दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति सामायिक, प्रोषधोपवास,उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागवतसे भी युक्त होता है। ६१-६. परमाणुओंसे मापे गये आकाशके प्रदेशोंकी श्रेणीमें ही सूर्य के उदय अस्त और गतिसे पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण आदि दिशाओंका व्यवहार होता है। निश्चित संख्यावाले प्राम नगर आदिके प्रदेशोंको देश कहते हैं । बिना प्रयोजनके पाप कर्मोंमें प्रवृत्ति अनर्थदण्ड है । विरति शब्दका प्रत्येकसे सम्बन्ध हो जाता है-दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति । यद्यपि प्रथमसूत्र में विरतिशब्द है पर वह उपसर्जनीभूत गौण होनेसे सम्बद्ध नहीं हो सकता अतः यहाँ उसका पुनः प्रहण किया है। ७. जैसे 'संगत घृत, संगत तैल' में 'सम्' शब्द एकीभाव अर्थमें है उसी तरह सामायिकमें भो । अर्थात् मन वचन और कायकी क्रियाओंसे निवृत्त होकर एक आत्मद्रव्यमें लीन हो जाना । समय अर्थात् आत्माकी प्राप्ति जिसका प्रयोजन हो वह सामायिक है । ८. पाँचों इन्द्रियोंका शब्द अदि विषयोंसे निवृत्त होकर आत्माके समीप पहुँच जाना उपवास है अर्थात् अशन पान भक्ष्य और लेह्य इन चार प्रकारके आहारोंका त्याग करना उपवास है। प्रोषध अर्थ पर्वके दिन । पर्वमें किया जानेवाला उपवास प्रोषधोपवास है। ६९. उपभोग अर्थात् एकबार भोगे जानेवाले अशन पान गन्ध माला आदि । परिभोग अर्थात् जो एकबार भोगे जाकर भी दुबारा भोगे जा सकें जैसे वस्त्र अलंकार शय्या मकान सवारी आदि । उपभोग और परिभोगकी मर्यादा करना उपभोगपरिभोगपरिमाण है। ६१०-११. चारित्रबलसे सम्पन्न होनेके कारण जो संयमका विनाश नहीं करके
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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